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Sunday, August 30, 2020

अहा जिंदगी आमुख आलेख: ऑनलाइन गुरु कितने कामयाब



डॉ. श्रीश पाठक*

कोरोना महामारी के बीच जहाँ अब लोग घरों से निकल जीवन के जद्दोजहद में एक बार फिर से जुट गए हैं, वहीं विधार्थियों की पीढ़ी को अभी भी भौतिक दूरीकरण निभाते हुए विद्यालयों, विश्वविद्यालयों से यथासंभव दूर ही रखने का प्रयास किया जा रहा। शिक्षा के आदान-प्रदान की प्रक्रिया में पारस्परिक अंतःक्रिया का महत्त्व प्रारंभ से ही पूरी दुनिया में स्थापित है l भौतिक दूरीकरण की विवशता ने शिक्षातंत्र के समक्ष यह भारी चुनौती पेश कर दी कि आखिर पारस्परिकता से लबालब कक्षाएँ अब कैसे हो सकेंगी l शिक्षातंत्र के ठिठकने का अर्थ होता, एक पूरी पीढ़ी के भविष्य की तैयारियों का ठिठकना और यह राष्ट्र के भविष्य पर भी प्रतिगामी असर छोड़ता। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनिओ गुतरेस ने कहा कि- विद्यालयों के बंद होने की वजह से दुनिया पीढ़ीगत त्रासदी से जूझ रही है l तकनीक ने यह चुनौती स्वीकार की और शिक्षा जगत ऑनलाइन कक्षाओं की ओर मुड़ गया l चूँकि चुनौती सहसा आयी थी तो जाहिर है इसकी तैयारी कोई मुकम्मल तो थी नहीं। इससे पहले ऑनलाइन कक्षाओं को अनुपूरक माध्यम की तरह ही सराहा गया था और दुनिया भर के शिक्षाविद इसे एक मजबूत वैकल्पिक माध्यम नहीं मानने को लेकर एकमत रहे हैं l कोविडकाल में ऑनलाइन कक्षाएँ एकमात्र माध्यम बनकर समक्ष आयीं और कोशिश जारी है कि यह एक मजबूत माध्यम बन सके। सहसा आयी इस आपदा ने अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के ही समक्ष नवीन चुनौतियों का अंबार लगा दिया। तकनीक अभिशाप या वरदान के शीर्षक वाले निबंधों में नए तर्क सम्मिलित हुए। तकनीकी असमानता, ऑनलाइन कक्षाओं की एकरूपता, गुणवत्ता का प्रश्न, स्क्रीन समय में बढ़ोत्तरी व स्वास्थ्य संबंधी दुश्वारियाँ, अंतर्वैयक्तिक अनुभव का अभाव, आदि कुछ ऐसी चुनौतियाँ विद्यार्थियों के समक्ष सहसा उभर आयीं, जिनसे तुरत उबरना आसान नहीं l इसी तरह, विधार्थियों के जिज्ञासु टकटकी और फिर उनके संतुष्ट आँखों का आदी अध्यापक भी सहसा कई चुनौतियों मसलन - ऑनलाइन तकनीकी माध्यम की सीमाएँ, इंटरनेट पर पूर्ण निर्भरता, उसी पाठ्यक्रम के साथ ऑनलाइन कक्षाओं में ऑफलाइन कक्षाओं के अनुभव को उतारने का दबाव, सीमित देहभाषा प्रयोग, आदि से घिर गए l 


शैक्षणिक सत्र बचाने के समान दबाव के बीच विद्यार्थी एवं अध्यापक उन चुनौतियों से जूझे जा रहे हैं। डिजिटल डिवाइड की खाई को देखते हुए सोलापुर, महाराष्ट्र के नीलमनगर के अध्यापकों ने पाठ पढ़ाने का एक प्रभावी एवं प्रेरक तरीका ढूँढ निकाला है l पाठ्यपुस्तकों के सरल पाठ आसपास के घरों की तक़रीबन 300 से अधिक बाहरी दीवारों पर रुचिपूर्ण एवं कलात्मक रीति से उकेर दिया है l लगभग सभी भारतीय राज्यों ने अपने अध्यापकों की सहायता से ऑनलाइन कक्षाएँ, रिकार्डेड व्याख्यान, मोबाईल ऐप, टेलीविजन आदि के माध्यम से पठन-पाठन को निर्बाध करने की कोशिश की है l तकनीकी ने यकीनन अपनी भूमिका निभायी है लेकिन जैसा  कि माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स कहते हैं कि तकनीकी तो केवल एक यंत्र है, असली महत्ता तो अध्यापकों की है l लगभग सभी स्तरों पर अध्यापकों ने अपनी नयी भूमिका के अनुरूप ढालना शुरू किया है और एक हद तक ही सही संभावित शैक्षणिक निर्वात को ख़ारिज कर दिया है। 


इन सब के बीच इस भीषण समय में एक समानांतर वाद-विमर्श भी सर उठाए है। कुछ लोगों को लगता है कि कोविडकाल के बाद संभवतः अध्यापकों की मूल महत्ता पर ही प्रश्न उठने शुरू हो जाएँ। अब जबकि बहुतेरी पाठ्यसामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है, विद्यार्थी पहले ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, तो क्या अध्यापकों की पारंपरिक भूमिका शेष रह गयी है? मशहूर भारतीय कंप्यूटर वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद सुगाता मित्रा ने वर्ष 1999 में द होल इन द वॉल प्रयोग शुरू किया था, जहाँ उन्होंने भारत के विभिन्न स्थलों पर कंप्यूटर सिस्टम को एक दीवाल में अस्थायी रूप से कुछ समय के लिए लगाकर छोड़ दिया। उन्होने पाया कि बच्चे स्वयं ही काफी चीजें धीरे-धीरे सीख गए, इसमें भाषा और वर्ग का अवरोध भी आड़े नहीं आया। उन्हें किसी निर्देशित वातावरण की आवश्यकता नहीं पड़ी। लेकिन उन्होंने भी माना कि यह सीखना एक सीमा तक ही संभव है और इसमें कहीं से भी अध्यापक की भूमिका समाप्त नहीं हो जाती। दुनिया भर के शिक्षाविद इस प्रश्न के उत्तर में अध्यापन-प्रविधि के अद्यतन करने की बात तो स्वीकार करते हैं लेकिन कोई भी अध्यापक एवं अध्यापन के विकल्प का तर्क नहीं मानते। यह सही भी है क्योंकि अध्यापन महज सूचनाओं का सम्प्रेषण मात्र नहीं है, यह सूचना, ज्ञान, बोध और विद्यार्थियों के समक्ष सम्यक चुनौतियों को वाजिब अनुपात में परोसने की कला है। फिर, सीखने की प्रक्रिया सतत प्रेरणा एवं रचनात्मक हस्तक्षेप की माँग करती है l फ्रेंच कवि, पत्रकार एवं उपन्यासकार अनातोली फ्रांस मानते हैं कि- शिक्षा का दस में से नौवां हिस्सा प्रोत्साहन है l अध्यापकों के जीवंत प्रोत्साहन का विकल्प मॉनिटर पर उभरे एकरस प्रोत्साहन-प्रतीक नहीं कर सकते l फिर सभी विद्यार्थी एक जैसे नहीं हैं, न ही वे एक पृष्ठभूमि के होते हैं और न ही उनकी समझ और रूचि की विमाएँ एक सी होती हैं। इस भिन्नता को विविधता में साधने का कार्य केवल अध्यापकीय कौशल से संभव है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक विलियम जी. स्पेडी कहते हैं कि- सभी विद्यार्थी सीख सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं लेकिन एक ही समय और एक ही रीति से नहीं l इंटरनेट पर अध्ययन सामग्री उपलब्ध हो सकती है, लेकिन दिशा-निर्देशन माउस के क्लिक पर उपलब्ध नहीं है। एकांत के स्वाध्याय से निपुणता उन्हीं विषय-सामग्री पर पायी जा सकती है जहाँ अध्यापक ने विषय-प्रवेश करा रूचि जाग्रत कर दी है l वर्ष 2012 के आसपास यह समझा गया था कि इंटरनेट पर उपलब्ध मैसिव ऑनलाइन ओपन कोर्सेज (मूक) शिक्षा में क्रांति रच देंगे और धीरे-धीरे अध्यापकों की परंपरागत भूमिका को समाप्त कर देंगे, लेकिन अनुभव बताते हैं कि उनमें विद्यार्थियों ने उतनी रूचि नहीं ली क्योंकि वहाँ व्यक्तिगत-मानवीय हस्तक्षेप की गुंजाईश कम रही और विधार्थी-विशेष की आवश्यकताओं पर ध्यान देना वहाँ संभव न रहा। अनुपूरक रूप से सभी अध्यापन प्रविधियों एवं माध्यमों की महत्ता निश्चित ही है लेकिन इनमें से किसी भी माध्यम में अकेले अथवा संयुक्त रूप से मानवीय भूमिका को स्थानांतरित करने की क्षमता नहीं है l यह अभीष्ट भी नहीं है, क्योंकि मानव एक सजग प्राणी है, उसे जीवंत बोध की दरकार रहती है, सूखी सूचनाएँ उसके लिए पर्याप्त नहीं है। जापान की एक लोकप्रिय कहावत कहती है कि - हजार दिनों के अध्ययन-परिश्रम से अधिक बेहतर सच्चे अध्यापक के एक दिन का साथ है और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में ऐसा इसलिए है क्योंकि सच्चे अध्यापक हमें हमारे बारे में सोचना सिखाते हैं।  


*लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी, नोयडा में विश्व-राजनीति विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।  


Monday, April 27, 2020

Political Literacy: संप्रभुता (Sovereignty)


28/04/2020

Image Source: Thesaurus.Plus





संभव हो और आप अर्थशास्त्र से अर्थ निकाल लें, मनोविज्ञान से मन, बैंकिंग से बैंक, समाजशास्त्र से समाज और इतिहास से अतीत, तो इन सब्जेक्ट्स में कुछ बाकी नहीं रहेगा l ठीक उसीप्रकार राजनीतिशास्त्र में यदि संप्रभुता की अवधारणा निकाल दी जाय तो यह सब्जेक्ट अपना केन्द्रक खो देगा और निष्प्राण हो जाएगा l राजनीति के विद्यार्थी हों और संप्रभुता की अवधारणा से अनभिज्ञ या अस्पष्टता हो, तो अन्य सभी प्रयत्न अर्थहीन हैं l राजनीति का अध्ययन करते हुए बार-बार यह महसूस होगा कि एब्स्ट्रेक्ट इतने भी शक्तिशाली हो सकते हैं l राजनीति में जिन तथ्यों की साधिकार चर्चा की जाती है उनमें से अधिकांश कोई भौतिक सत्ता नहीं रखते, टैंजीबल नहीं हैं l लेकिन अपने प्रभाव में वे इतने प्रबल हैं कि उनका एब्स्ट्रेक्ट होने पर सहसा विश्वास नहीं होता l राज्य भी एक अवधारणा ही है, इसे आप स्पर्श नहीं कर सकते, यह हमारे मन में क्रमशः स्थापित एक अवधारणा है l हाँ, अवश्य ही राज्य के अन्यान्य एजेंसियों और एजेंटों से हम रूबरू होते हैं l यों ही संप्रभुता की अवधारणा भी एक एब्स्ट्रेक्ट ही है लेकिन यह राजनीति की कोशिका का केन्द्रक है l

संप्रभुता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति का होना है l संप्रभु की निर्णायक विशेषता ही संप्रभुता है l किसी निश्चित भूभाग पर संप्रभु वह निकाय अथवा व्यक्ति है जिसे केवल आज्ञा देने की आदत है, आज्ञा लेने की आदत नहीं है l आज्ञा लेते ही वह सर्वोच्च शक्ति कहाँ रह जाएगा? चूँकि वह सर्वोच्च शक्ति है तो इसकी इच्छा ही कानून है l कानून की एक सरल परिभाषा यह भी है कि वह संप्रभु की इच्छा है l अब संप्रभु की इच्छा तक पहुँचने की प्रक्रिया इतनी सरल नहीं l यहीं से राजनीतिक तंत्र (पोलिटिकल सिस्टम) की चर्चा की शुरुआत होती है l सर्वाधिक ध्यान देने वाली बात संप्रभुता की यह है कि इसे काटा नहीं जा सकता, बाँटा नहीं जा सकता और न ही इसे किसी को प्रत्यायोजित/प्रत्यायुक्त (delegate) किया जा सकता है; अर्थात इसे विखंडित कर विभाजित नहीं किया जा सकता है और न ही यह ऐसी कोई वस्तु है जिसे कुछ समय के लिए किसी और को सौंपा ही जा सकता है l यह समझा भी जा सकता है क्योंकि यदि इसे काटा जाए, बांटा जाए अथवा इसे किसी को एक परिमाण में सौंप दिया जाए तो यह सर्वोच्च शक्ति न रह सकेगी l संप्रभुता, राजनीतिशास्त्र की आत्मा है जिसे काटा, बांटा और साझा नहीं किया जा सकता l यहाँ यह भी समझें कि संप्रभुता सर्वोच्च शक्ति का होना है, लेकिन शक्ति की अवधारणा और संप्रभुता की अवधारणा में अंतर है l शक्ति का विभाजन संभव है, लेकिन संप्रभुता विभाजित होते ही अपने परम पद से च्युत (suspend) हो जाएगी और विनष्ट हो जाएगी l

संप्रभु की जरुरत क्यों है, यह समझ लेना आवश्यक है l संप्रभु के अस्थिपंजर के ऊपर ही राज्य के अवधारणा की मांस-मज्जा सजती है l राज्य के केंद्र में यदि सर्वशक्तिशाली संप्रभु न बैठा हो तो वह भरभराकर गिर उठेगा l संप्रभु के अभाव में राज्य संभव नहीं और राज्य के अभाव में व्यवस्था संभव नहीं और व्यवस्था का अभाव अराजकता (एनार्की) को जन्म देता है जिससे मानव के अस्तित्व पर ही संकट आ जाता है l जीवन की सततता और उसका विकास किसी केयोस (Chaos) में संभव नहीं l इसलिए हमें संप्रभु की निर्णायक विशेषता संप्रभुता की आवश्यकता है l

आगे चलकर व्यवस्था और अधिकार के विमर्श संभव हो सके l यह समझा गया कि सुव्यवस्था वही है जिसमें अंतिम व्यक्ति के अधिकार की भी व्यवस्था हो l संप्रभुता में शक्ति का केन्द्रीकरण है क्योंकि वह सर्वोच्च शक्ति है तो वह व्यक्ति का अधिकार संजोएगा इसमें संशय है l अब चूँकि हम संप्रभुता की अवधारणा को शक्तिहीन नहीं कर सकते लेकिन उसकी बनने की प्रक्रिया और स्रोत को नियंत्रित कर सकते हैं, तो यह माना गया कि यदि जिसके अधिकार सुरक्षित करने हैं, उसी को संप्रभु कहा जाए तो इस समस्या से पार पाया जा सकता है l लोकतंत्र इसी समझ का परिणाम है l लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निवास करती है l जनता-जनार्दन से सर्वोच्च शक्ति कोई दूसरी नहीं l यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि व्यक्ति विशेष में सम्रभुता नहीं होती या कोई एक व्यक्ति लोकतंत्र में संप्रभु नहीं होता अपितु जनता संप्रभु होती है l एक-एक व्यक्ति मिलकर ही समस्त हो संप्रभुता का निर्माण करते हैं l चूँकि संप्रभुता विभाजन स्वीकार नहीं करती तो कोई एक नागरिक में यह निवास कर ही नहीं सकती l एक राजनीतिक व्यवस्था में (विशेषकर लोकतंत्र'में ) राष्ट्र का अध्यक्ष अपने अधिकारों में सर्वोच्च हो सकता है, अथवा संसद अपने अधिकारों में सर्वोच्च हो सकती है लेकिन संप्रभु होना संभव नहीं, यह निर्णायक रूप से अंततः जनता में ही निवास करती है l इसलिए ही एक व्यक्ति के आवाज उठाने में और जनता के आवाज उठाने में निर्णायक अंतर होता है l व्यक्ति के जायज मांगों को जनता की मांग में तब्दील करने का काम राजनीतिक कार्यकर्त्ता और दलों का हैं और मीडिया उस जनता की आवाज की पिच को तेज, भारी और सर्वव्यापी बनाती है, इसलिए महत्वपूर्ण है l

#Political_Literacy
#श्रीशउवाच 


Saturday, April 25, 2020

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

जिंदगी के स्वप्न फिर फिर आँख में पलने लगे हैं…!

डॉ. श्रीश पाठक* 


वही लाल सूरज जो कल शाम डूबा था, अल सुबह उगने को है l ये नवजात लाल सूरज ताजे चौबीस घंटों की नयी सौगात बेदम हिम्मतों को देने को आतुर है l उम्मीदों की सुतली को इतनी चिंगारी काफी है कि सुबह होगी, लाल सूरज फिर खिलेगा l डटे रहने के लिए, इतना आसमान काफी है कि मौसम बदलेगा l चमकते तारों के दीदार को रात के काले अँधेरे की दरकार होती है l अपने-अपने घरों में डटे हम लोग आजकल जिंदगी को जरा ज्यादा करीब से महसूस कर पा रहे हैं, अब इस मज़बूरी की अंधियारी रात में साथ के चमकते तारों को तो ढूँढना होगा l ये वही लोग हैं, जिनके साथ सुख सुकून शांति से रहने के लिए हम सहूलियतें जुटाते हुए दरबदर बाहर भटकते रहे हैं l कहीं पहुँचने के लिए दौड़ना तेज था, अब तेजी के लिए रोज दौड़े जा रहे हैं, लगी इस लत को समझने के लिए जिस ठहराव की जरुरत थी, उस ठहराव में हैं हम l यह ठहराव हमें अवसर दे रहा पुनरावलोकन का l 


Dainik Bhaskar (Aha Zindgi)


स्मृति तो हर जीव में न्यूनाधिक होती है लेकिन मनुष्य, कल्पना का वरदान लिए जन्मता है l स्मृति के सहयोग से कल्पना, मनुष्य में भविष्य का उमंग भरती जाती है और इस उत्ताल उमंग से वर्तमान का दुर्घर्ष सहनीय और सुगम्य होता जाता है l स्वप्नदर्शी होना, प्रत्येक मनुष्य को गतिशील बनाता है l स्वप्न हैं अपने-अपने, स्वप्नों के अपने-अपने परिक्रमण पथ पर सभी अग्रशील होते हैं l ये स्वप्न सभी को अनूठा व्यक्तित्व और अनुपम संयोजन देते हैं l यह अनूठापन ही जगत-व्यापार में अलग-अलग भूमिकाएँ पाने में मदद करता है l जीवन के सतरंगी सागर में इसप्रकार अनगिन अलबेली नौकाएँ तिरती-फिरती रहती हैं l यूँ तो जगत का हर जीव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता है, हारता है, उठता है, जीतता है फिर लड़ता है, लेकिन मानव ने बहुधा स्वयं को दाँव पर लगाकर मानवता की रक्षा की है l चौदहवीं सदी के ब्युबोनिक प्लेग जिसने दुनिया के एक-तिहाई लोगों को अपना निशाना बना लिया था, से लेकर आज तक महामारियों का इतिहास सुझाता है कि जानकारी और सावधानी का अभाव ही बीमारियों को त्रासदी में तब्दील करते हैं l मानवता का ज्ञात इतिहास दर्जन भर से अधिक महामारियों की त्रासदियों से अटा पड़ा है l इतिहास के उन पन्नों से गुजरते हुए अनिश्चितता, असुरक्षा, भय के वही भाव उसी शिद्दत से उभरते हैं, जिनमें कमोबेश आज फिर मानवता है l त्रासदियों के इतिहास का हर अध्याय बताता है कि उसके तुरंत बाद मानवता के सुनहरे पन्ने लिखे गए l इन सुनहरे पन्नों के लेखकों की नींव उन्हीं ने बनायीं थी जो उन भयंकर त्रासदियों से गुज़रे थे l दुनिया सामंतवाद के बेलगाम शोषण से मुक्त होने में और अधिक सदियाँ लेती जो महामारी ने मानवता को मजबूर न किया होता l फिर शेष लोगों ने विपत्ति को बेहद जरूरी सामाजिक सुधार के लिए एक बड़े अवसर में तब्दील कर दिया l आधुनिकता की नींव जिस  पुनर्जागरण आन्दोलन पर टिकी है वह मानवता की सबसे भीषण त्रासदी ब्युबोनिक प्लेग के बाद उपजी थी जिसने यूरोप की आधी आबादी को इस कदर लील लिया था कि उस जनसंख्या के फिर उसी संख्या में पहुँचने में अगले २०० साल लग गए थे l काले प्लेग की त्रासदी के बाद मानव अनोटोमी पर जो शोध हुए उनपर ही आज आधुनिक मेडिकल साइंस की ईमारत खड़ी है l प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका ने स्त्री सुधारों का रास्ता खोला तो स्पेनिश फ्लू के बाद सार्वजनिक चिकित्सा कल्याण कार्यक्रमों ने मानव की औसत जीवन प्रत्याशा की दर अभूतपूर्व रूप से किसी भी गुज़री सदी से बेहतर कर दी l एक समय जिस विजेता नेपोलियन से समूचा यूरोप दहला हुआ था, उसी नेपोलियन ने कैरीबियाई देश हैती को विजित करने के लिए एक बड़ा जहाजी बेड़ा भेजा, ताकि गुलामों का बाजार बना रहे l नेपोलियन की सेना हारी, हैती को उसकी स्वतंत्रता मिली क्योंकि हैतीवासी उन बीमारियों के खिलाफ अपने शरीर में प्रतिरक्षा विकसित कर चुके थे जो यूरोप में फैलती थीं l उनका ग़ुलाम के रूप में यूरोप में काम करना किसी भयंकर त्रासदी से कम नहीं था लेकिन उसी त्रासदी ने उन्हें प्रतिरक्षा भी दी थी l पिछली गुजरी कितनी ही त्रासदियों में तो हमारे पास इन्टरनेट नहीं था, विज्ञान इतना उन्नत नहीं था, बीमारी के कारक ही पता नहीं होते थे, फिर भी मानवता न केवल उनसे पार पा सकी बल्कि प्रत्येक त्रासदी से अपने लिए पारितोषिक भी अर्जित किया l आज विज्ञान उन्नत है, हफ़्तों में महामारी की पहचान हो जाती है, महीनों में उसके टीके, इलाज या उनसे निबटने के तरीकों का ईजाद हो जाता है l गुजरी कितनी ही महामारियों-त्रासदियों में जो लोग शेष रहे, उनके समक्ष भी अनिश्चितता, असुरक्षा और भय का वही बड़वानल था लेकिन उनके पास था एक अदम्य विश्वास जो अनिश्चितता पर भारी पड़ा, वे लबालब थे एक अटूट उम्मीद से जो भय पर भारी पड़ी, और वे ओतप्रोत सजग थे मानवता से जो उस असुरक्षा के माहौल से उन्हें बाहर खींच लायी l 


नाउम्मीदी से बड़ी बीमारी अब तक मानव ने कोई दूसरी नहीं बनाई है और त्रासदियों में सबसे विकराल चुनौती इसी नाउम्मीदी की बीमारी को महामारी में बदलने से रोकने की होती है l व्यक्ति के स्तर पर ऐसे समय में इससे बड़ी मदद कोई और नहीं हो सकती कि आप उम्मीदों की मशाल को पूरी मजबूती से थामे रहें, जिसे देख दूसरों को भी संबल मिले, यह आसान नहीं है l यह जर्मनी के राज्य वित्त मंत्री थॉमस शेफर से नहीं हो सका यह, उन्होंने आत्महत्या कर ली l मौजूदा महामारी के संकट के बीच उन्हें लगा कि उनका राज्य हेसी कभी आर्थिक संकट से मुक्त न हो सकेगा l उम्मीद की एक लौ बुझती है तो बाकि बत्तियां भी ठिठकती हैं l लौ ही सही, बुझना नहीं है, उम्मीद की बाती को हिम्मत के तेल से तर रखना है ताकि मानवता की आंच आती रहे l धीरे-धीरे पूरा आँगन रौशन होगा और हम देखेंगे कि हम केवल इस पार ही नहीं आये हैं, बल्कि गुणात्मक रूप से रूपांतरित भी हुए हैं l यह समय यकीनन सामाजिक दुरीकरण का है लेकिन इसे सामाजिक विरागीकरण में परिवर्तित नहीं होने देना है l रिश्तों की खोज-खबर लेकर, उन्हें संजोकर हमें संबंधों का पूल बनाना है, ज्ञान-विज्ञान के बोध साझा कर अनुभव का पूल बनाना है और एक-दुसरे के आशयों के लिए आवश्यक संवेदनशीलता विकसित करनी है ताकि मानवता अपनी अस्तित्व अपनी पूरी महत्ता में बचा सके l  


हमारी सभ्यता, हमारी परम्पराएँ और हमारे जीवन मूल्य, त्रासदियों से जूझने के दौरान अर्जित किये गए पाठों के अनुशीलन से बने हैं l ‘एपिडेमिक्स एंड सोसाइटी: फ्रॉम द ब्लैक डेथ टू द प्रेजेंट’ के लेखक प्रोफ़ेसर फ्रैंक एम. स्नोडेन कहते हैं कि ‘त्रासदियाँ, मानवता के लिए दर्पण का काम करती हैं l हमें इनसे पता चलता है कि एक व्यक्ति के तौर पर हमारा हमारे वातावरण से कैसा रिश्ता है और समाज के तौर पर हम एक-दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं, कहीं वैश्विक अंतर्सम्बद्धता का सूत्र हमसे छूट तो नहीं गया है l’ त्रासदियाँ आती हैं, जाती हैं पर हमें वह शेष बनना है जो अपने भीतर उम्मीद की लौ को बुझने नहीं देते क्योंकि वे जानते हैं कि समय यह भी कुछ देकर जाएगा l इन्हीं शेष में से फिर मानवता का अशेष उपजता है जो जीवन की सततता को शक्ति देते हैं l जब चहुंओर अनिश्चितता, भय, अवसाद की ख़बरें आती हों, जब लोग एक-दूसरे पर ही संदेह करने लगे हों, जब समुदाय एक-दूसरे का साथ देने को प्रेरित कर पाने में अक्षम हो रहे हों, एक व्यक्ति के तौर पर इस महामारी में केवल हाथों को साफ़ रखना काफी नहीं होगा। हमारी आँखों को भी खुले रहना होगा उन सभी कोनों की ओर जहाँ से उम्मीद की, विश्वास की, सकारात्मकता की कहानियाँ दिखती हों, क्योंकि ये कहानियाँ ही हमारी जिजीविषा की जरूरी ईंधन हैं जिनपर वृहत्तम शेष अपने अशेष की बुनियाद रखेंगे। 


*लेखक एमिटी यूनिवर्सिटी में विश्व राजनीति के शिक्षक हैं. 


Sunday, January 12, 2020

कैसे समझें वामपंथ (Leftist), दक्षिणपंथ (Rightist) और केन्द्रस्थ (Centrist) राजनीति का अंतर

डॉ. श्रीश 

यों तो यह उम्मीद करना कि सामान्य बोलचाल की भाषा में राजनीतिक शब्दावलियों का सटीक प्रयोग ही हो, इतना आसान नहीं है; लेकिन थोड़े भी संवेदनशील एवं जागरूक व्यक्ति के लिए यह जरुरी हो जाता है कि वह राजनीतिक शब्दावलियों का कम से कम लिजलिजा प्रयोग न करे. चूँकि राजनीति सबको प्रभावित करती है तो इसके शब्दों का असंयत, अनुचित प्रयोग बेजा का भ्रम पैदा करेगी और सहयोग के स्थान पर संघर्ष की स्थितियां निर्मित करेंगी. इस लेख में हम वामपंथ और दक्षिणपंथ के सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंतर को समझने की कोशिश करेंगे और इस कोशिश के साथ ही हम समाजवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद (कम्युनिज्म), पूंजीवाद, केन्द्रस्थ राजनीति (Centrist Politics), फांसीवाद और कन्जर्वेटिज्म (रुढ़िवादी/संकीर्णतावादी) आदि शब्दावलियों को प्रसंगानुसार देखेंगे.

आज हम सभी राजनीतिक विकास के जिस चरण में हैं उसकी प्रकृति में प्रत्येक देश की राजनीतिक संस्कृति के अनुरूप विविधताएँ हैं. राजनीतिक विकास का पथ सीधा सपाट नहीं रहा है इसलिए ही राजनीतिक शब्दावलियाँ कम से कम सामान्य बोलचाल में खासा भ्रमपूर्ण हो जाती हैं. लगभग संपूर्ण विश्व में राजनीतिक विकास की यात्रा, राजतंत्र से लोकतंत्र एवं एक व्यक्ति (सामान्यतया राजा) के शासन से नागरिक शासन की ओर उन्मुख हुई है. इस यात्रा में कई टेढ़े-मेढ़े घुमाव हैं जिनकी वज़ह से ही  प्रचलित राजनीतिक शब्दावलियों के आम प्रयोग में इतना घालमेल है.

सिद्धांत के स्तर पर दर्शन की दो धाराओं ने मानव जाति की प्रगति का नेतृत्व किया है. एक धारा यह मानकर चली कि जो कुछ भी है उसके मूल में पदार्थ है (पदार्थवाद) और विचार, पदार्थ से ही व्युत्पन्न है. दूसरी धारा इसके उलट विचार को प्रथम मानती है (विचारवाद/आदर्शवाद) और पदार्थ को महत्ता में दूसरी वरीयता में रखती है. दोनों ही वैचारिक धाराओं में पदार्थ और विचार की चर्चा है, लेकिन अन्तर प्राथमिकता का है. आगे दोनों ही धाराओं में मानव विकास के सापेक्ष जटिलताएं आती गयी हैं.

राजनीतिक स्तर पर ‘विकास’ एवं ‘सुंदर जीवन (Idea of Good Life)’ की गरज से दो दिशाओं में वैचारिक विमर्श आगे बढ़ा. एक विमर्श ने ‘समाज’ को वरीयता दी तो दूजे ने ‘व्यक्ति’ को. प्रारंभ में यह विभाजन इतना स्पष्ट नहीं था. बल्कि दोनों ही धाराओं ने अपने-अपने तरीकों से ‘एक व्यक्ति के शासन (राजतन्त्र)’ के स्थान पर धीरे-धीरे ‘नागरिक का शासन/जनता के शासन (लोकतंत्र/जनतंत्र)’ को वरीयता दी है. राजतन्त्र के खिलाफ जनता ने क्रांति आन्दोलन किये. परिणाम ये रहा कि या तो राजतन्त्र के स्थान पर जनतंत्र की स्थापना हुई अथवा राजतन्त्र ने व्यापक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राथमिकता देते हुए जनता के शासन को आत्मसात कर लिया. राजनीति के भीतर इस व्यापक बदलाव के बाद जब राजनीति लगभग जनता के हाथों में आ गयी तो विचारधारा के स्तर पर ‘व्यक्ति’ और ‘समाज’ प्रेरित सिद्धांतों का अंतर न केवल स्पष्ट होता गया बल्कि यह दैनंदिन राजनीति में एक निर्णायक पहलू के तौर पर उभरता चला गया है.

कालान्तर में राजनीतिक विकास कुछ यों हुए कि ज्यादातर विचारधाराएँ जो अपने वैचारिक विकास के केंद्र में ‘व्यक्ति’ को रखना पसंद करते थे वे विचारवादी/आदर्शवादी परम्परा (Idealism) से जुड़ गए और अन्य ज्यादातर विचारधाराएँ जिन्होंने ‘समाज’ को केंद्र में रखकर अपना वैचारिक सौष्ठव गढ़ा, वे पदार्थवादी परम्परा (Materialism) से संलग्न हो गए. सुंदर बात यह थी कि दोनों ने शोध की वैज्ञानिक प्रविधि को अपनाया. यहाँ यह बात समझने योग्य है कि इस वैचारिक विकास में प्रत्येक देश ने अपने-अपने इतिहास, समाज, भूगोल एवं पर्यावरण के मुताबिक इसमें योगदान दिया है और विविधता संजोयी है. कोई एक परिभाषा, कोई एक समझ इसमें अंतिम नहीं है.

समाजवादी वैचारिक परम्परा (Collectivism) के चार सोपान माने जाते हैं- 1. स्वप्नदर्शी समाजवाद (यूटोपियन सोशलिज्म), 2. वैज्ञानिक समाजवाद (मार्क्सवाद) 3. समाजवादी लोकतंत्र/संयत समाजवाद (सोशलिस्ट डेमोक्रेसी/मोडरेट सोशलिज्म) 4. सोशल गोस्पेल (उदारवादी धर्मसिद्धान्त). यूटोपियन सोशलिज्म, वह शुरुआती समाजवादी वैचारिक विकास को कहते हैं जो कार्ल मार्क्स के पहले हुआ. इसमें उतनी स्पष्टता तो नहीं है लेकिन व्यक्ति के ऊपर समाज को वरीयता देने की प्रवृत्ति विद्यमान है. इसके विचारकों को स्पष्टता से पदार्थवादी या आदर्शवादी परम्परा में रखना मुश्किल है, क्योंकि उनमें दोनों प्रवृत्तियां घुली-मिली हैं. मार्क्सवाद, समाजवादी वैचारिकी का मार्क्स द्वारा स्थापित संस्करण है. चूँकि यह पुनर्जागरण के बाद हुई तर्कवाद की प्रगति से निकले आधुनिकतावाद (Modernism) से ओतप्रोत है, और व्याख्या के प्रत्येक पर खासा तार्किक है, इसलिए इसे वैज्ञानिक समाजवाद कहा गया. मार्क्स के द्वारा दिए गए  समाजवाद के संस्करण में स्वतः स्फूर्त क्रांति के पश्चात् हुए सत्ता परिवर्तन को लक्ष्य किया गया है जिसमें अंततः शासन सत्ता की बागडोर शोषितों के हाथ में आ जाती है और आर्थिक संसाधनों पर शोषितों का सामूहिक अधिकार स्थापित हो जाता है. इस व्यवस्था में प्रत्येक को उसके योगदानों के अनुरूप भुगतान की बात होती है. मार्क्स इस अवस्था से संतुष्ट नहीं होते. वह एक और अवस्था की चर्चा करते हैं जिसे वह कम्युनिज्म (साम्यवाद) का नाम देते हैं. स्वतः स्फूर्त रीति से ही फिर समाज में वर्ग व्यवस्था (Class System) ख़त्म हो जाएगी. समाज का विकास राष्ट्र की संकीर्ण दीवारों से इतर हटकर मानव मात्र के विकास की ओर उन्मुख हो जायेगा. इस राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को उसके योगदान के अनुरूप नहीं अपितु उसके जरूरतों के मुताबिक ही भुगतान की व्यवस्था होगी क्योंकि सामूहिक लाभ को सभी के लिए उपलब्ध करने की मंशा से यह व्यवस्था कार्य करेगी जिसमें किसी भी प्रकार के भेदभाव एवं शोषण के लिए स्थान नहीं होगा. उपनिवेशवाद से मुक्त होने के बाद अधिकांश देशों ने समाजवाद के तीसरे सोपान को अपनाया जिससे समाजवादी लोकतंत्र कहते हैं. यहाँ समाजवादी मूल्यों को तो वरीयता दी गयी लेकिन राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में सहयोग (Cooperation) और होड़ (Competition) दोनों की गुंजाईश रखी गयी. सार्वजनिक उपक्रम एवं निजी उपक्रम दोनों के लिए जगह छोड़ी गयी लेकिन झुकाव कल्याणकारी एवं सार्वजनिक कार्यकलापों पर ही रखा गया. चौथा सोपान खासा धार्मिक स्तर पर है जिसमें यह आशा व्यक्त की गयी कि एक दिन आध्यात्मिक स्तर पर वैश्विक एकता स्थापित होगी और जिसमें भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं होगी.

आदर्शवादी वैचारिक परम्परा भी अपने विकास में चार चरणों को पार करती है. औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजी आधारित व्यापार की शुरुआत होती है और धीरे-धीरे पूंजीवाद (पहला चरण) मानव जीवन के प्रत्येक आयाम की अपने स्तर से व्याख्या करने लग जाता है. जिसके पास पूंजी (योग्यता) होगी, वही व्यक्ति (व्यक्तिवाद) राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों का नियामक होगा (दूसरा चरण). यही वो वैचारिक विकास का पड़ाव है जहाँ पूरी स्पष्टता से समाज के ऊपर व्यक्ति को वरीयता देने की परम्परा की शुरुआत होती है. व्यक्तिवाद ने राज्य से व्यक्ति के अधिकारों की मांग पूरे जोर से की और ज्यों-ज्यों राज्य का लोकतंत्रीकरण होता गया, व्यक्ति के पास ऐसे मूल अधिकार होते गए, जिन्हें पूरा करना राज्य की जिम्मेदारी बनती गयी. इसे ही ‘लोककल्याणकारी राज्य’ की संकल्पना कहते है (तीसरा चरण/उदारवादी चरण). वैश्वीकरण के सतत प्रक्रियाओं ने जहाँ एक तरफ से दुनिया भर के देशों को अपनी सीमा खोलकर आर्थिक सहयोग के लिए उकसाया वहीं दुसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर निजीकरण, विनिवेश आदि प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप संरक्षणवादी राज्य (कंजर्वेटिज्म) की संकल्पना (चौथा चरण) को जन्म दिया जिसमें राज्य का लोककल्याणकारी स्वरुप संकुचित होता जा रहा.

इन राजनीतिक शब्दावलियों को यदि व्यवहार के स्तर पर देखें तो ध्यान देने वाली बात यह है कि पूंजीवाद और व्यक्तिवाद के चरम ने एक तरफ दुनिया को साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की त्रासदी दी तो दूसरी तरफ इसने उत्कट राष्ट्रवाद को ऐसी हवा दी कि दुनिया को दो-दो महायुद्धों का सामना करना पड़ा. सरकारें जिन्होंने समाजवाद की परम्परा को व्यावहारिक स्तर पर अपनाने की कोशिश की, उनमें भी तानाशाही, राष्ट्रवादी प्रवृत्तियां इतनी हावी हुईं कि या तो वे अब उदारवादी लोकतंत्र को अपना चुके हैं या अब वे अपने मूल समाजवादी चरित्र से ही भटक चुके हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध से लगभग समूचे विश्व में उदारवादी लोकतंत्र को धीरे-धीरे अपनाया जा रहा, जिसमें कहीं-कहीं समाजवादी तो कहीं-कहीं कंजर्वेटिव प्रवृत्तियां विद्यमान हैं.

वामपंथ एवं दक्षिणपंथ राजनीति को यदि हम समझने की कोशिश करें तो पहले हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यावहारिक राजनीतिक विकास के सापेक्ष जो राजनीतिक वैचारिकी का विकास हुआ है, दोनों ने दोनों को प्रभावित किया है और दोनों ने ही दोनों को अपने शुद्धतम रूप में नहीं रहने दिया है. पुरी दुनिया में इसीलिए ही किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था को अपने शुद्धतम रूप में किसी भी राजनीतिक वैचारिकी का उदाहरण नहीं कहा जा सकता. सिद्धांत और व्यवहार का इतना अंतर तर्कसंगत भी है. सामान्यतया अब कलेक्टिज्म की सभी परम्पराओं को लोकप्रिय राजनीति में वामपंथ कह कर पुकारा जाता है और विचारवाद/आदर्शवाद की सभी परम्पराओं को दक्षिणपंथ कहकर पुकारा जाने लगा है. इसकी एक वज़ह तो ये है कि वैचारिक धाराएँ समय के साथ इतनी जटिल होती गयीं, जिन्हें सामान्य राजनीतिक व्यवहार में ठीक-ठीक समझना कठिन होता गया है. ऊपर आपने ये जटिलताएं महसूस भी की होंगी. उत्तर-दक्षिण पंथ की पदावली सहज है और तुरत ही समझ आती है. लेकिन इस उत्तर-दक्षिण की इस शब्दावली को समझने के लिए फ़्रांसिसी क्रांति की ओर मुड़ना होगा. क्रांति के बाद राष्ट्रीय सांविधानिक सभा जब इस बात का निर्णय करने के लिए बैठी कि नए राजनीतिक व्यवस्था में क्या राजा के पास कोई निषेधाधिकार दिया जाय अथवा नहीं. राजा को निषेधाधिकार देने के हिमायती राष्ट्रपति के दाहिनी ओर बैठे (Girondists) और जो राजा को बेहद सीमित अधिकार देना चाहते थे, वे बांयी ओर बैठे (Montagne). ईसाई परम्परा में भी ईश्वर अथवा परिवार के मुखिया (भोजन के मेज के सन्दर्भ में ) के दाहिनी ओर बैठना सम्मान की बात मानी जाती है. सामान्यतया राजा के हिमायती जो समाज के उच्च प्रतिष्ठित जन (नोबेल), राजसी पदाधिकारी, समर्थक होते थे वे राजा के दाहिनी ओर स्थान पाते थे और साधारण जन राजा के बांयी ओर स्थान पाते थे. यह सहज विभाजन आधुनिक राजनीति में इस तरह लोकप्रिय होता गया कि जो सामान्यतया पारम्परिक राजनीतिक मूल्यों के हिमायती थे उन्हें दक्षिणपंथी कहा जाने लगा और जो परिवर्तन और नवीन, आधुनिक राजनीतिक मूल्यों के हिमायती थे उन्हें वामपंथी कहा जाने लगा. इसके साथ ही किसी भी राजनीतिक मंच पर बहुधा स्थापित परम्परा के हिमायती दक्षिणपंथी कहलाये और उसमें परिवर्तन के समर्थक वामपंथी कहलाये, इसके लिए पूंजीवादी, उदारवादी या समाजवादी होना अनिवार्य नहीं है. यहीं एक और महत्वपूर्ण बात समझने को है. वैश्विक लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में वामपंथी परम्परा का योगदान न्यून नहीं किया जा सकता क्योंकि वे परिवर्तन के हिमायती थे. चूँकि अब विश्व में लगभग सभी देशों में उदारवादी लोकतंत्र या इसके जैसी कोई व्यवस्था अस्तित्व में है जो वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सांस ले रहे हैं और घोषित तौर समाजवादी व्यवस्थाएं हाशिये पर हैं तो अमूमन लगभग सभी राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिणपंथी शब्द उदारवादी राजनीति को व्यक्त करने लगा है और वामपंथी शब्द समाजवादी राजनीति को व्यक्त करने लगा है. इसप्रकार अगर वामपंथी शब्द का इतिहास देखें तो यह स्वयं में आधुनिक राजनीतिक परिवर्तन के गौरवशाली इतिहास को समेटे है.

कोई व्यक्ति वामपंथी है तो इसका यह अर्थ अवश्य निकलता है कि वह सत्ता के स्थापित मूल्यों में परिवर्तन का हिमायती है, बहुत सम्भावना है कि वह समाजवादी हो, संभव है कि वह साम्यवादी हो, लेकिन एक सम्भावना यह भी है कि वह किसी खास राष्ट्रीय राजनीति में उदारवादी होते हुए भी वहाँ की सत्ता के स्थापित मूल्यों का विरोध कर रहा हो और उसमें परिवर्तन का हिमायती हो तो लोकव्यवहार में वहाँ उसे वामपंथी कहा जा रहा हो.

केन्द्रस्थ राजनीति समझने के लिए हम वाम-दक्षिण-केंद्र की राजनीतिक पेंडुलम उपमा का उपयोग करेंगे. केन्द्रस्थ राजनीति का अर्थ है कि राजनीति का विचार के स्तर पर मध्यमार्गी होना, जहाँ पेंडुलम बिलकुल अपनी आदर्श स्थिति यानि बीच में स्थित होता है. केन्द्रस्थ राजनीति मिक्स इकोनोमी की वकालत करती है, मूलभूत नागरिक सेवाओं को सार्वजनिक स्रोतों से करने की हिमायती होती है और साथ ही नागरिक को निजी सेवाएं लेने को भी हतोत्साहित नहीं करती. पूंजीवादी मूल्यों और समाजवादी मूल्यों में एक सतत साम्य बनने को उद्यत रहती है. कनाडा की राजनीति इसका बेहतर उदाहरण है.

यही पेंडुलम जब दक्षिण की ओर ऊपर उठ जाती है तो इसे दक्षिणपंथी राजनीति कहते हैं. पूंजीवाद, प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिवाद (ONE before all), बाजार, निजीकरण, विनिवेश, राज्य की जिम्मेदारी कम होते जाना, उत्तरदायी सरकार, सार्वजनिक निकायों से अधिक निजी उपक्रम को स्पेस मिलना और वैश्विक आर्थिकी में संरक्षणतावादी होना, आदि-आदि. इसका सबसे बेहतर उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका है. राष्ट्रवाद इस व्यवस्था का प्रमुख पोषक विचार है. इस दक्षिणपंथी राजनीति में जब जनतांत्रिक मूल्य घटते जाते हैं, कुछ खास लोग ही बारम्बार सत्ता पर काबिज हो जाते हैं अथवा कुछ खास प्रतिनिधि विचार ही सभी जनता के ऊपर बारम्बार आरोपित किये जाते हैं, जब कोर्पोरेट ही देश की नीतियां गढ़ने लग जाते हैं और नागरिक समाज या तो प्रश्न नहीं करता सत्ता से अथवा प्रश्न करने लायक अपनी क्षमता खो देता है और राष्ट्रवाद की अति उग्र अवधारणा जब पनपती है, तो इसे फांसीवादी राजनीति कहते हैं. यह दक्षिणपंथ का एक विद्रूप संस्करण है. 1922 से 1945 का इटली इसका सबसे बेहतर उदाहरण है.

यहीं पेंडुलम जब केन्द्रस्थ राजनीति को छोड़कर वाम की ओर ऊपर उठ जाती है तो इसे वामपंथी राजनीति कहते हैं. समाजवादी मूल्यों में आस्था रखना, सामाजिकता-सामूहिकता (ALL for ONE and ONE for ALL), सार्वजनिक उपक्रमों को प्राथमिकता, जनतांत्रिक व्यवस्था, उत्तरदायी सरकार, आदि-आदि. इसका व्यावहारिक उदाहरण फ़्रांस है. अब यदि यही पेंडुलम वाम की ओर तनिक और उठ जाए, जिसमें सार्वजनिक संपत्ति का सामूहिक स्वामित्व हो, व्यक्ति के सापेक्ष समाज (राज्य/सरकार) की महत्ता हो तो इसे साम्यवादी/समाजवादी राजनीति कहेंगे. इसका सटीक उदाहरण 1918 से 1991 तक अस्तित्व में रहे सोवियत संघ है. यहाँ अंतर्राष्ट्रीयवाद एक प्रमुख पोषक विचार है. लेकिन जैसे ही इसमें भी सोवियत के नाम पर एक व्यक्ति शासन हुआ, इस राजनीति में भी तानाशाही की बीमारी आई.

यहाँ यह भी ध्यान दें कि अब दक्षिणपंथ शब्द और वामपंथी शब्द अब अपने उग्र स्वरूप के लिए इस्तेमाल होने लगे हैं, जब तक उदारवादी पूंजीवाद की राजनीति है या केन्द्रस्थ राजनीति है अथवा समाजवादी मूल्यों वाली राजनीति है, तब तक सामान्यतया वामपंथ या दक्षिणपंथ का प्रयोग आमजन में नहीं होता.

इतना अवश्य ही स्पष्ट हुआ होगा कि विचार परम्परा के स्तर पर देखें तो सभी पंथ की राजनीति का अच्छा और बुरा संस्करण मौजूद है, सिद्धांत में भी और इतिहास में भी. इसलिए इतना अवश्य ही समझ आता है कि जब तक किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नागरिक राजनीतिक रूप से सुशिक्षित और जागरूक नहीं हो जाते, तब तक नेतागण उन्हें इन राजनीतिक शब्दावलियों के प्रयोग-कुप्रयोग में ही घुमाते रहते हैं और अपनी जिम्मेदारी से वे निर्द्वंद भागते रहते हैं.

Sunday, February 24, 2019

फेक न्यूज फिनोमेना

ज़्यादातर लोग 14 फरवरी को वैलेंटाइन दिवस के रूप में मनाते हैं, लेकिन 14 फरवरी, 1931 की सुबह लाहौर में शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गई थी। 
'शिक्षा से मै अंग्रेज़ हूँ, संस्कृति से मुस्लिम और दुर्घटनावश हिन्दू हूँ' -जवाहर लाल नेहरू
मैचूपो विषाणु, पैरासीटामोल टेबलेट में पाया जा सकता है। 
राष्ट्रपति ट्रम्प ने इस्तीफा दिया।
भारत में लगाई गई विश्व की सबसे लंबी ऊँची मूर्ति स्टेचू ऑफ यूनिटी में अभी से दिखने लगे हैं  दरार।    

ऊपर की ये पाँचों खबरें पूरी तरह से गलत हैं। 
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी 23 मार्च 1931 को दी गई थी। जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा वक्तव्य कभी नहीं दिया। पैरासीटामोल दवा पूरी तरह से सुरक्षित है और मैचूपो विषाणु के भारत में पाये जाने की फिलहाल कोई सूचना नहीं हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपना इस्तीफा नहीं दिया है। खबरों के लिबास में यह चारों सूचनाएँ दरअसल भ्रामक, जाली खबरें, फर्जी खबरें या फेक न्यूज हैं। बहुत मुमकिन है कि आपने भी इन खबरों को कहीं पढ़ रखा हो। अपने प्रस्तुतीकरण में ये बिलकुल असली खबरों की तरह ही होती हैं, किन्तु ये फर्जी खबरें, असल खबरों के मुक़ाबले कहीं तेजी से फैलती हैं और अपना असर छोड़ जाती हैं। एमआईटी के एक शोध के मुताबिक सही खबर के मुक़ाबले जाली खबरें सत्तर प्रतिशत अधिक रीट्वीट की जाती हैं। इसके प्रभाव व प्रयोग को देखते हुए कॉलिन्स शब्दकोश ने 2017 में 'फेक न्यूज' को अपने 'साल के शब्दों' में जगह दी है। माइक्रोसॉफ्ट की तरफ से कराये गए एक वैश्विक सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि फेक न्यूज के मामले में भारत पहले स्थान पर है। इसका अर्थ यह है कि अपने इर्द-गिर्द जिन खबरों की चर्चा हम पाते हैं, उनके फेक न्यूज होने की संभावना सर्वाधिक है। फेक न्यूज से पनपे अफवाहों की वजह से भारत में भीड़ ने अलग-अलग स्थानों पर तकरीबन 25 लोगों की जानें ली हैं। बीबीसी द्वारा कराये गए एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि तकरीबन 72 प्रतिशत भारतीय सही खबर और जाली खबरों का अंतर समझ नहीं पाते।  


यहाँ, यह समझ लेना आवश्यक है कि फेक न्यूज (जाली खबर) और फाल्स न्यूज (गलत खबर) में अंतर है। खबरों का 'गलत' हो जाना एक मानवीय या तकनीकी चूक हो सकती है, फाल्स न्यूज संभव है कि स्रोत, माध्यम या अभिकर्ता के किसी स्तर पर हुई त्रुटि के परिणामस्वरूप प्रसार में आई हो, पर फेक न्यूज जानबूझकर एक सोचे-समझे एजेंडे के तहत प्रसार प्रक्रिया में स्थापित किए जाते हैं। फेक न्यूज का एक स्पष्ट मकसद होता है, एक लक्षित समूह होता है और चुनिंदा माध्यम पर सवार होकर यह अपने दुष्प्रभाव दिखलाती है। फेक न्यूज, पूरी तरह से भ्रामक, जाली सूचनाएँ, फोटो या वीडियो होते हैं जो जनता को भ्रमित करने के लिए, सार्वजनिक रूप से भय का माहौल बनाने के लिए, हिंसा भड़काने के लिए और एक बड़े स्तर पर जनता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए जानबूझकर गढ़े व फैलाये जाते हैं। मीडिया साक्षरता विशेषज्ञ मार्टिना चैपमैन के अनुसार फेक न्यूज में आधारभूत तीन तत्व होते हैं: मिसट्रस्ट (विश्वासहीनता), मिसइन्फोर्मेशन (गलत सूचना) और मैनीपूलेशन (तोड़-मरोड़)। तीन देशों- भारत, नाइजीरिया और कीनिया में सात दिनों तक 80 लोगों के द्वारा खबरों को प्रयोग करने की वृत्ति को बीबीसी समूह द्वारा अध्ययन किया गया, देखा गया कि वह फेसबुक व व्हाट्सअप माध्यम का प्रयोग सूचनाओं को साझा करने के लिए कैसे और कितना करते हैं। यह पाया गया कि तीनों ही देशों में सूचनाओं के स्रोत के बारे में जानने के प्रयास न के बराबर किए गए। दरअसल, एक बढ़िया खबर के लिए उसका स्रोत, उसका माध्यम, उसकी स्पष्टता, उसकी शुद्धता और उसके अभिकर्ता/प्रसारक, ये पाँच कारक बेहद मायने रखते हैं। इन्हीं पाँच कारकों पर समझौता कर फेक न्यूज बनाए व फैलाये जाते हैं। चूंकि वे खबरों की लिबास में होते हैं तो उन्हें तुरत ही एक प्रसारसंख्या मिल जाती है, चौंकाउ व सनसनीखेज होते हैं, तो तवज्जो मिल जाती है और चूँकि इंटरनेट व सोशल साइट्स के युग में उपभोक्ता भी प्रसारकर्ता होते हैं तो फेक न्यूज को एक खतरनाक संवेग भी मिल जाता है जो कभी-कभी जानलेवा भी हो जाता है। हाल ही में कन्नूर जिले के लगभग दो लाख चालीस हजार बच्चों के माता-पिता ने जानलेवा खसरा, मम्प्स, रूबेला आदि बीमारियों के टीके लगवाने से इंकार कर दिया, क्योंकि किसी फेक न्यूज से बनी अफवाह पर उन्हें अधिक भरोसा था। टीकाकरण की प्रक्रिया पूरे दो महीने बाधित रही।      

निश्चित ही फेक न्यूज फिनोमेना ने पिछले कुछ वर्षों में बेहद खतरनाक ढंग से अपनी जड़ें जमाई हैं और इंटरनेट, मोबाइल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सूचना क्रांति युग में यह लगभग असंभव सा ही है कि पूरी तरह इनपर नियंत्रण किया जा सके, लेकिन यह भी सच है कि इतिहास के पन्नों में बहुत पहले ही फेक न्यूज की प्रवृत्ति दिखलाई पड़ती है। समय के हर पड़ाव पर कुछ नए प्लेटफॉर्म जुडते गए हैं पर फेक न्यूज की आवक कम-अधिक बनी ही रही है। ईसा के लगभग 44 वर्ष पूर्व आक्टेवियन ने मार्क एन्टोनी के खिलाफ भ्रामक खबरों के माध्यम से छवि धूमिल करने की कोशिश की थी। न्यूयार्क के प्रतिष्ठित अखबार 'द सन' ने 1835 में बाकायदा छह आलेखों की शृंखला प्रकाशित की थी जिसमें यह दावा किया गया था कि चंद्रमा पर न केवल जीवन की उपस्थिति है अपितु एक सभ्यता ही विकसित है। 1899-1902 के बीच चले बोअर युद्धों में भी भ्रामक खबरें खूब गढ़ी गईं और प्रसारित की गईं। प्रथम विश्व युद्ध फेक न्यूज से अछूता नहीं रहा और न ही द्वितीय विश्व युद्ध इनकी छाया से बच सका। हिटलर के शासन में तो बाकायदा 'रायस मिनिस्टरी ऑफ पब्लिक एनलाईटेनमेंट एंड प्रोपेगेंडा' बनाई गई थी जो सिलसिलेवार ढंग से भामक खबरें गढ़ती थी और उन्हें संचार के प्रत्येक उपलब्ध माध्यमों पर प्रसारित कर मनचाहा सार्वजनिक प्रभाव पैदा करती थी। शीत युद्द (1947-1991) के समय फेक न्यूज इंटेरनेशनल ब्रॉडकास्टिंग के जरिये प्रसारित किए गए। द न्यूयार्क टाइम्स ने 2004 में सार्वजनिक माफीनामा जारी किया जिसमें उसने स्वीकार किया कि इराक में वेपन्स ऑफ मास डिसट्रक्सन (जनसंहारक हथियार) की खबर फेक थी। अभी हाल ही में फेक न्यूज के प्रभाव में आकर पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ने इजरायल को परमाणु आक्रमण की धमकी दे डाली। फेक न्यूज की ऐतिहासिकता व इसके खतरनाक असर को इन संदर्भों से समझा जा सकता है।      

फेक न्यूज को गढ़ने और फैलाने के पीछे की मंशा को टटोलें तो कुछ स्पष्ट कारण समझ आते हैं। बहुधा वे किसी प्रोपेगेंडा के तहत योजनाबद्ध रूप से गढ़े और प्रसारित किए जाते हैं ताकि एक खास ध्रुवीय समर्थन को साधा जा सके और विपरीत मत को खंडित किया जा सके। यह किसी दूसरे पक्ष को मिल रहे समर्थन को कमजोर करने के लिए भी किया जा सकता है। एक नए गैरज़रूरी मुद्दे को चर्चा में लाकर किसी पुराने जरूरी मुद्दे पर से जनता का ध्यान हटाने के लिए भी फेक न्यूज का सहारा लिया जाता है। विधि, प्रशासन, व्यवस्था में गड़बड़ी कर जनता में एक भय स्थापित करने की मंशा भी हो सकती है, इसे वैश्विक-आतंकवाद के दौर में एक जटिल गैर-पारंपरिक सुरक्षा-भय के रूप में भी देखा जा सकता है। एक बेहद मजबूत कारण फेक न्यूज के पीछे आर्थिक लाभ की लालसा है। इंटरनेट पर विभिन्न साइट्स पर उपलब्ध सामग्रियों को प्रयोग करने से साइट्स पर हिट आती हैं और साइट्स को इससे आर्थिक लाभ होता है। अधिक से अधिक पेजव्यूज और हिट्स पाने के लिए अक्सर भ्रामक शीर्षकों के साथ फेक न्यूज परोसी जाती है। इसप्रकार फेक न्यूज़ का एक बिजनेस मॉडल ही है, जो बेहद योजनबद्ध तरीके से फेक न्यूज डिजाइन करता है, परोसता है और फैलाता है। 

फेक न्यूज के व्यापक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक असर को देखते हुए एक व्यापक मीडिया साक्षरता एवं डिजिटल साक्षरता अभियान की अतीव आवश्यकता है। यों तो सरकार ने अपने ढंग से मीडिया, फेसबुक, व्हाट्सअप आदि जैसे कई माध्यमों को निर्देश दिया है कि वे ऐसे फिल्टर अपने सिस्टम में निर्मित करें जिससे फेक न्यूज के प्रसार पर रोकथाम लगे परंतु यह तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक उपभोक्ता/प्रयोक्ता किसी न्यूज का प्रसारकर्ता बनने से पहले स्वयं सजग होकर सामान्य पड़ताल करने की जहमत नहीं उठता। फेक न्यूज बनाने वाले, हमारी तुरत-फुरत की फॉरवर्ड और शेयर करने की प्रवृति का ही लाभ उठाते हैं और अपना मंसूबा साधते हैं। यह बेहद अहम है कि किसी भी खबर पर यकीन और उसे साझा करने से पहले हम उस खबर के स्रोत के बारे में पड़ताल करें कि क्या यह सामग्री एक विश्वसनीय स्रोत से आई है! एक खबर को कम से कम तीन स्रोतों से जाँचें। केवल शीर्षक पढ़कर राय न बनाएँ, खबर पूरी पढ़ें और तह तक जाएँ, अक्सर ही फेक न्यूज के शीर्षकों में विस्मयादि बोधक चिन्हों की भरमार होती है। खबरों की टाइमिंग से खिलवाड़ कर भी संदर्भ बदल दिये जाते हैं, ध्यान दें कि क्या यह खबर नई है या कोई पुरानी खबर ही फिर से परोसी गई है। आप चाहे किसी भी व्यवसाय में हो एक सामान्य अध्ययन की प्रक्रिया सतत चलने दें, इससे स्वयं के पक्षपात को पहचानने और उसे ठीक करने का अवसर मिलता है और आप आसानी से किसी फेक न्यूज के शिकार नहीं बनते हैं। कई बार कुछ खबरें व्यंग के लिए लिखी जाती हैं और उसे गंभीरता से साझा कर दिया जाता है, सो सचेत रहें। इससे पहले कि यह फेक न्यूज फिनोमेना कोई बड़ी त्रासदी लेकर आए, हम सभी नागरिकों को भी इसके लिए सजग और प्रयत्नशील रहना होगा।  



Thursday, December 13, 2018

भारत-पाकिस्तान का करतारपुर कनेक्शन



लोकतंत्र की विडंबना यह है कि सत्ता की निरंतरता की चाह दलों को अपनी सरकार बनाने और बचाने के लिए अंततः सबकुछ दाँव पर लगाने को उद्यत कर देती है और दल सत्ता के लिए ऐसा करने भी लग जाते हैं। दल, सत्ता के अपने पाँच सालों में लगभग हमेशा ही कुछ यों अपनी गतिविधियाँ रखते हैं कि उन्हें चुनाव में इसका फायदा अवश्य मिले। भारत-पाकिस्तान संबंध भी सीमा के दोनों ओर की सरकारों की इस मानसिकता से लगातार प्रभावित होता रहा है। पंजाब, जो कि सीमा के दोनों ओर फैला है और दोनों ही देशों का महत्वपूर्ण राज्य है, संबंधों की इस अनिश्चितता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला नागरिक-समुदाय है। खालिस्तान-संघर्ष का भयावह अध्याय इसमें सुरक्षा व आतंकवाद के महत्वपूर्ण तत्व भी जोड़ता है, जिससे सरकारें और भी एहतियात बरतती हैं और संबंधों में एकप्रकार की ठंडी जड़ता पसरी रहती है। इन ठिठके रिश्तों में सहसा एक हलचल हुई जब भारतीय पंजाब के राज्य सरकार के एक मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू अपने क्रिकेटर मित्र इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने पाकिस्तान पहुँचे और मंच पर पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले लग गए। यह तस्वीर और विडियो सीमा के दोनों ओर सनसनीखेज रही और दलों ने भी जमकर इसपर छींटाकशी की। गौरतलब है कि भारतीय पंजाब में अभी कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार है और केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार आरूढ़ है। भाजपा और कांग्रेस ने बयानों की रस्साकशी शुरू कर दी और नवजोत सिंह सिद्धू बेतहाशा ट्रोल किये जाने लगे। सिद्धू, चूँकि भाजपा के स्टार प्रचारक रह चुके हैं और हाल ही में उन्होंने कांग्रेस से खुद को जोड़ा है तो यों भी उनपर ट्रोलर्स मेहरबान थे। लेकिन जब सिद्धू ने यह कहा कि कमर बाजवा ने उनसे यह कहा कि आख़िरकार पाकिस्तानी सरकार करतारपुर गलियारा खोलने पर विचार कर रही है तो उनसे रहा नहीं गया और झूमकर उन्होंने बाजवा को गले लगा लिया तो इस बात ने सियासत को एक अलग ही मोड़ दे दिया। पंजाब के जो भाजपा नेता अभी सिद्धू की देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर नुकीली आलोचना कर रहे थे, उन्हें भी अपना स्वर संयत करना पड़ा क्योंकि मामला अब सिख धर्म से जुडी भावनाओं से जुड़ गया था। भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत केंद्र की मोदी सरकार भी सकते में थी क्योंकि इस आशय का कोई संचार फ़िलहाल पाकिस्तानी सरकार ने भारत की सरकार से नहीं किया था। 

विभाजन के समय कई बेहद महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल पाकिस्तान की सीमा में आ गए थे जिसमें गुरद्वारा जनम अस्थान ननकाना साहिब, पंचमुखी हनुमान मंदिर कराची, कटसराज मंदिर पंजाब, क्राइस्ट चर्च रावलपिंडी, सेंट कैथेडरल कराची, गुरद्वारा डेरा साहिब लाहौर, हिंगराज मंदिर बलूचिस्तान, सेक्रेड हार्ट कैथेडरल लाहौर, हसन अब्दाल स्थित गुरद्वारा पंजा साहिब और गुरद्वारा करतारपुर साहिब प्रमुख हैं। यों तो भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों में इतने हिलोर रहे हैं कि दोनों देशों के नागरिकों के लिए अपने-अपने धार्मिक स्थलों पर पहुँचना एक बेहद कठिन बात रही है लेकिन सितम्बर 14, 1974 को दोनों देशों ने ‘प्रोटोकॉल ऑन विजिट्स टू रिलीजियस श्राइन्स’ पर हस्ताक्षर किये जिसमें एक निश्चित वीजा व समय के लिए चिन्हित धार्मिक स्थलों पर जाया जा सकता है। हालाँकि, संबंधों के बनते-बिगड़ते आयामों के बीच इस सुविधा में भी नानुकर होती रही, पर यह भी सच है कि शांतिकाल में प्रतिवर्ष दोनों ही ओर से लाखों श्रद्धालु आवागमन करते हैं। गुरद्वारा करतार साहिब को पहला गुरद्वारा होने का गौरव प्राप्त है जहाँ गुरु नानकदेव ने अपनी लगभग 25 बरस की यात्रा (जिसमें उन्होंने श्रीलंका, तिब्बत, ईरान, बंगाल तक की खाक छानी) के बाद जीवन के आख़िरी 18 बरस एक किसान की तरह बिताया था। कहते हैं कि अपने समकालीन कबीर की तरह ही इनके प्रयाण पर भी हिन्दुओं और मुस्लिमों में विवाद हो गया था और कबीर की तरह ही गुरु नानक के पार्थिव शरीर के स्थान पर कुछ फूल मिले जिसे लेकर समाधि भी बनी और कब्र भी। गुरु नानकदेव ने कबीर की ही तरह सभी धर्मांधों की कटु आलोचना की और जीवनपर्यंत यह संदेश देते रहे कि सभी धर्म अपने शुद्धतम रूप में एक ही सच कहते हैं। यह करतारपुर ही था, जहाँ गुरु ने सभी भेदभावों को मिटाकर लंगर की प्रथा कायम की जो आज सिख धर्म की बेहद महत्वपूर्ण विशिष्टता है। इसलिए ही, करतारपुर साहिब, सिख धर्म के प्रत्येक अनुयायी के लिए एक बेहद धार्मिक स्थल है जहाँ जाने की हसरत सभी श्रद्धालुओं को होती है। भारतीय श्रद्धालु अपनी यह हसरत उन दूरबीनों  से देखकर भी पूरी करते हैं जो जिला गुरदासपुर में स्थित डेरा बाबा नानक गुरद्वारे पर दर्शन हेतु लगाई गयी है। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी लाहौर बस यात्रा में पहली बार करतारपुर साहिब गलियारे की चर्चा करते हैं और लगभग पिछले 25 वर्षों से सीमा के दोनों ओर से इस सन्दर्भ में प्रयास जारी थे। पाकिस्तान के नरोवाल जिले में स्थित करतारपुर साहिब गुरद्वारा और डेरा बाबा नानक गुरद्वारा में महज 4 किमी का फासला है पर रावी नदी यहीं बीच में भारत-पाकिस्तान की सीमा बनाती है। एक चुनाव रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने इसी सीमा पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कांग्रेस को सिख भावनाओं की कद्र होती तो करतारपुर साहिब भारतीय सीमा में होता। यह बेहद ही खतरनाक और हास्यास्पद बयान है यदि इतिहास के पन्नों को न भुलाया जाय। जाहिर है, मोदी सरकार को बिलकुल अंदेशा नहीं था कि पाकिस्तान की नयी इमरान सरकार यदि करतारपुर गलियारा खोलने को राजी होती भी है तो उसका संदेसा पहले सिद्धू को मिलेगा और धार्मिक भावनाओं के दबाव में मोदी सरकार इस अवसर को मना भी नहीं कर सकती थी। गौरतलब है कि 22 नवम्बर से गुरु नानकदेव का 550वां प्रकाशवर्ष भी प्रारम्भ हो गया है जिसकी तैयारी जोरशोर से चल रही और मोदी सरकार ने भी इसे  भव्यता से मनाने का निर्णय लिया है और भारत सरकार को अपनी ओर से भी करतारपुर गलियारा के शिलान्यास का निर्णय लेना पड़ा। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा का पशोपेश में होना सुषमा स्वराज के उस बयान से बखूबी झलकता है जहाँ वह कहती हैं कि करतारपुर गलियारा खोलने पर पाकिस्तान सरकार की सहमति आने का अर्थ यह नहीं है कि भारत, पाकिस्तान से शांति वार्त्ताओं के लिए तैयार हो जायेगा। यकीनन, आज जो नवजोत सिंह सिद्धू भाजपा में होते तो भारत सरकार इसे पाकिस्तान के साथ ट्रैक-2, ट्रैक-3 नीति की शांति प्रयासों से जोड़ती और चुनावों में बड़ी सकारात्मकता से उतरती। भाजपा से कांग्रेस में गए नवजोत सिंह सिद्धू के हाथ इस इक्के के लग जाने से अब कांग्रेस में उनकी स्थिति मजबूत तो हुई ही है, पंजाब में भी उनके लिए एक गुडविल बनी है। 

भारत की तरफ से करतारपुर गलियारे का शिलान्यास करते हुए नितिन गडकरी ने इसे चार-पाँच महीने में ही पूरा कर लेने का दावा किया, जिससे बिना वीजा के श्रद्धालुओं की आवाजाही हो सके। इसी मंच से बोलते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन अटकलों का जवाब दिया जिनमें गलियारे की आतंकवादियों द्वारा सुरक्षा संबंधी दुष्प्रयोग का अंदेशा जतलाया गया है। उन्होंने पाकिस्तानी जनरल कमर बाजवा को कड़ी चेतावनी दी और कहा कि पंजाबी लड़ना जानते हैं। सुरक्षा एजेंसियों की यह चिंता वैसे जायज है कि इस गलियारे का दुष्प्रयोग संभव है। यह चिंता तब और बढ़ जाती है जब इसे खोलने की सूचना सीधे पाकिस्तानी जनरल कमर बाजवा की ओर से सबसे पहले आती है वह भी पाकिस्तान के नयी सरकार के शपथ ग्रहण के अवसर पर, तो निश्चित ही यह इमरान सरकार का फैसला नहीं लगता। पाकिस्तान में यों भी विदेशी मामलों में सरकार से अधिक सेना की चलती है और इमरान सरकार सेनापरस्त सरकार मानी भी जाती है। ऐसे में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की एक चिंता यह भी है कि यह पाकिस्तानी सेना का एक गेमप्लान भी हो सकता है। एक वीजाफ्री गलियारा दोनों ओर के खालिस्तानी अतिवादियों को भी मौका देगा और यह देशव्यापी आतंकवाद का भी एक जरिया बन सकता है। दो देशों के बीच जब तनावपूर्ण संबंध होते हैं और संयोग से वे एक-दूसरे के पड़ोसी होते हैं तो न शांति के प्रयास थामे जाते हैं और न ही सुरक्षा व ख़ुफ़िया तैयारियों में कोई ढील दी जाती है, इसलिए इस आशंका के समानांतर किसी भी प्रकार के शांति प्रयासों को रोका नहीं जा सकता और सरकार दूसरी ओर इस गलियारे के लिए अपनी सुरक्षा तैयारियों पर भी गंभीरता से काम अवश्य करे।

करतारपुर साहिब गलियारा, भारत-पाकिस्तान संबंधों में एक नयी ऊर्जा फूंक सकता है जो सीमा की दोनों ओर की सरकारें गंभीर हों। पाकिस्तान में नयी सरकार आ चुकी है और भारत में नयी सरकार आने को है। पाकिस्तान के साथ भारत की एक कशमकश यह रहा करती थी कि वार्ता किससे की जाय पर अभी इमरान खान ने गलियारे का अपनी तरफ से शिलान्यास करते हुए ठीक ही कहा कि सरकार, सेना और नागरिक समाज सारे ही इस मुद्दे पर एक पेज पर हैं। इमरान खान का एक पर्सनल कनेक्ट भी सिख धर्म से है। इमरान खान जबसे महान बाबा फरीद के अनुयायियों के संपर्क में आये हैं, खासे आध्यात्मिक हुए हैं और इन बाबा फरीद के महत्वपूर्ण उद्धरण नानकदेव के गुरुग्रंथ साहिब में ही पहली बार मिलते हैं। बचपन से इमरान खान जिस मेला मियांमीर में शिरकत करते रहे हैं और उनकी माँ की कब्र जिस मियांमीर की कब्र के पास है उन्हीं मियांमीर ने गुरु अर्जनदेव के आग्रह पर अमृतसर स्थित हरमिंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की नींव रखी थी। गुरु नानकदेव ने अपने जीवन के तमाम वर्ष कई देशों की सीमायें लांघते हुए शांति का पाठ पढ़ाने में व्यतीत किया, उनके 550वें  प्रकाशवर्ष के अवसर पर भारत-पाकिस्तान शांति का एक नया सोपान प्रारम्भ कर सकते हैं। यह गलियारा पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को धार्मिक पर्यटन के रूप में लाभ पहुँचायेगा। क्षेत्र में रूस की मंशा अमेरिकी प्रभाव को सीमित करते हुए यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत और चीन अपने पारस्परिक विवाद निपटाते हुए ईरान से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, चीन होते हुए रूस तक एक सशक्त ऊर्जा गलियारा बनायें जिससे क्षेत्र में अमेरिका पर निर्भरता कम हो। गौरतलब है कि ईरान, पाकिस्तान और चीन से रूस से रिश्ते अच्छे हैं और रूस, भारत से भी अपने रिश्तों में जान फूंककर अफगानिस्तान, ईरान के जरिये मध्य-पूर्व एशिया में अपनी उपस्थिति पुख्ता करना चाहता है। भारत, संबंधों के इस वितान पर होने वाले सुखद संभावनाओं की अनदेखी नहीं ही कर सकता तो करतारपुर गलियारा एक महत्वपूर्ण प्रारंभन बिंदु हो सकता है। सिख डायस्पोरा की ताकत भी कनाडा, यूके, यूरोप सहित समूचे विश्वभर में है तो यह गलियारा इस सिख़-विस्तार को भी आकर्षित करेगा और अंततः भारतीय कूटनीति को लाभ भी पहुँचायेगा।   


Thursday, November 22, 2018

राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर मालदीव

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में मोहम्मद सोलिह के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के साथ ही मालदीव इस दशक के अपने सबसे बड़े राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर पहुंच गया. लोकतांत्रिक संविधान के अनुरूप चुने गये पहले राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद द्वारा शपथ लेने के तीन साल के भीतर ही, वर्ष 2012 में, त्यागपत्र देने से शुरू हुए राजनीतिक संकट ने महज सवा लाख आबादी वाले इस खूबसूरत द्वीपीय देश को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में डाल दिया था. मोहम्मद नशीद ने राष्ट्रपति रहते हुए देश की पर्यटन नीति में बदलाव किये थे.

इनसे मौमून अब्दुल गयूम और उनके भाई अब्दुल्ला यामीन के आर्थिक हितों को ठेस लगी थी. नवम्बर, 2013 में गयूम के प्रयासों से यामीन ने राष्ट्रपति की कुर्सी अपने नाम की. तबसे यामीन और नशीद के बीच राजनीतिक संघर्ष जारी था. उस समय हिंदमहासागर में चीन स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति के तहत बड़े कदम उठा रहा था.


तब, गयूम के बाद नशीद भी चीन के सामरिक व आर्थिक आकर्षण में आने को उद्यत थे. वर्ष 2011 हुए सत्रहवें दक्षेस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मालदीव में आने के एक दिन पूर्व चीनी दूतावास का उद्घाटन करने गये मोहम्मद नशीद की चीन से नजदीकी भारत को रास नहीं आयी थी.

बदलते वैश्विक परिदृश्य में चीन अपनी ओबोर नीति से अमेरिका को चुनौती पेश करने लगा, वहीं अमेरिका ने भी हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र के संयुक्त सामरिक महत्व को देखते हुए जापान, आस्ट्रेलिया व भारत के साथ एक चतुष्क (क्वाड) की सामरिक योजना रची.

महज 297 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले देश मालदीव के राजनीतिक संकट में अब भारत-चीन और अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के आयाम शामिल हो गये, जिसने समूचे हिंद महासागर क्षेत्र की राजनीतिक स्थिरता में हिलोेर भर दिया. पारंपरिक रूप से भारत की भूमिका, मालदीव में निर्णायक रही थी, किंतु यामीन के सत्ता में आने पर चीन को वरीयता मिलती गयी.

इसी तनातनी में, नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में अपना मालदीव दौरा रद्द कर दिया था. अगस्त, 2017 में तीन बड़े चीनी जहाजी बेड़े ने माले में अपना डेरा लगाया था. उसी साल दिसंबर में मालदीव ने चीन के साथ ‘मुक्त व्यापार संधि’ भी की. मालदीव के कुल राष्ट्रीय ऋण में तकरीबन 70 प्रतिशत हिस्सा अकेले चीन का था. यामीन का मालदीव चीन के इशारों पर काम कर रहा था और भारत इस देश की प्राथमिकताओं से अनुपस्थित था.

मालदीव के लिए यह दशक चरमपंथी इस्लाम के उभार का भी रहा. चीन की कठपुतली बने यामीन अपने एकतांत्रिक निर्णयों से मालदीव की लोकतांत्रिक अस्मिता को तार-तार किये जा रहे थे.

निवर्तमान राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद राजनीतिक बंदी बना दिये गये थे और अंततः देश से निर्वासित थे. इस बीच यामीन की अपने भाई गयूम से इस कदर ठन गयी कि गयूम ने नशीद से हाथ मिला लिया. गयूम भी आखिरकार जेल भेज दिये गये.

सुप्रीम कोर्ट ने जब इस साल फरवरी में मोहम्मद नशीद सहित नौ राजनीतिक बंदियों को रिहा करने और 12 सांसदों की सदस्यता बहाल करने का निर्देश दिया तो अल्पमत और महाभियोग के खतरे को भांपते हुए अब्दुल्ला यामीन ने देश में आपातकाल लागू कर दिया और सितंबर में राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा कर दी. उस वक्त नशीद ने भारत और अमेरिका से आवश्यक हस्तक्षेप कर मालदीव में लोकतंत्र बचाने की गुहार की थी. चीन ने तब इसे आंतरिक संकट कहकर टिप्पणी की थी.

सेना और पुलिस यामीन के इशारे पर काम कर रही थी, वहीं चुनाव आयोग, न्यायपालिका और नागरिक समाज लोकतांत्रिक पथ पर प्रशस्त हो चुनौतियों का सामना कर रहे थे.

मालदीव की आम जनता ने इस संघर्ष को मुकम्मल बनाया, जब माह सितंबंर में रिकॉर्ड 89.2 प्रतिशत मतदान कर नशीद, गयूम और अन्य दलों के इब्राहिम सोलिह के गठबंधन को जीत प्रदान की और अब्दुल्ला यामीन को हरा दिया.

हालांकि, यामीन ने चुनावी परिणामों पर प्रश्न उठाया, लेकिन अमेरिका की कड़ी चेतावनी के बाद सबकुछ सामान्य हो गया. नयी सरकार ने आते ही चीन के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते सहित अन्य आर्थिक समझौतों के पुनरीक्षण की घोषणा कर दी है. अंततः मालदीव में, भारत को चीन पर एक निर्णायक बढ़त मिल गयी है.

भूटान, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव के हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से, दक्षिण एशिया में चीन व भारत की रस्साकसी स्पष्ट दिखती है, जिसके क्षेत्रीय, महासागरीय व वैश्विक संदर्भ हैं.

फिलहाल, मालदीव की नयी सरकार के समक्ष कई चुनौतियां हैं- देश की आर्थिक स्थिति सुधारना, इस्लामी चरमपंथ से निपटना, चीन से समझौतों में संतुलन लाना और गठबंधन सरकार में अंतर्निहित वैचारिक भेदों के बीच मध्यम मार्ग निकालना. अब्दुल गयूम, मोहम्मद नशीद और गठबंधन के अन्य दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति सोलिह को एक संगति बिठानी होगी, जो आसान नहीं होगा. लेकिन, मालदीव में अगले वर्ष होने वाले संसदीय चुनावों में नागरिक-समाज की प्रतिबद्धता को देखते हुए यह शुभाशा की जा सकती है कि यह खूबसूरत द्वीप स्वाभाविक राजनीतिक स्थिरता प्राप्त करने में सफल होगा.

Thursday, October 18, 2018

भूटान में लोकतंत्र का नया संस्करण

साभार: अमर उजाला

भारत, नेपाल और चीन की भौगोलिक विन्यासों में स्थलबद्ध भूटान आज (18.10.18) अपने शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक सत्ता-हस्तांतरण के तीसरे संस्करण की भूमिका लिखने वाला है। भूटान के संविधान के अनुसार आम चुनाव दो चरणों में होते हैं। पहले चरण में मतदाता विभिन्न दलों में से अपने पसंद के दल चुनते हैं। सर्वाधिक पसंद किये गए केवल दो दलों के उम्मीदवारों को ही दूसरे चरण में भूटान के 20 जिलों से उम्मीदवारी का मौका मिलता है। राष्ट्रीय सभा (चोगदू) के निम्न सदन के 47 सीटों में से अधिकांश पर विजयी दल के नेता को भूटान के राजा द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। इस बार के पहले चरण में विगत 15 सितंबर को हुए चुनाव में भूटान की जनता ने सभी को चौंकाते हुए भारत के प्रति उदार रुख बरतने वाली सत्तारूढ़ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को तीसरे स्थान पर खिसकाते हुए अगले चरण से ही बाहर कर दिया और छह साल पुराने अपेक्षाकृत नये दल ड्रूक न्यामरूप चोगपा (डीएनटी) को पहले स्थान पर और 2008 के पहले आम चुनाव को जीतने वाले ड्रूक फियंजम चोगपा (डीपीटी) को दूसरे स्थान पर अपना पसंदीदा दल करार दिया। दूसरे चरण में मुकाबला डीएनटी और डीपीटी दलों में होना है। डीपीटी दल से देश के पहले प्रधानमंत्री रहे जिग्मे थिनले को जून 2012 में रियोडीजेनेरियो में चीनी प्रीमियर वेन जियाबाओ से की गयी मुलाकात के बाद से कूटनीतिक हलकों में उन्हें चीन के प्रति उदार रुख बरतने वाला समझा गया। जिसके बाद एक महीने के लिए भारत से भूटान को दी जा रही गैस सब्सिडी तकनीकी कारणों से अवरुद्ध हो गयी थी। देश के दूसरे आम चुनाव 2013 में विपक्षी दल पीडीपी ने अन्य प्रासंगिक मुद्दों के साथ-साथ सत्तारूढ़ डीपीटी की नीतियों से भारत-भूटान पारंपरिक सुघड़ संबंधों में आ सकने वाली खटास को मुद्दा बनाते हुए तब चुनाव जीत लिया था। 


आमतौर पर शांत रहने वाले इस प्राकृतिक सुरम्य देश भूटान के लिए पिछले पाँच साल काफी घटनापूर्ण रहे। अपने पूर्ववर्ती जिग्मे थिनले की वैश्विक विदेश नीति से अलग पीडीपी दल से नियुक्त प्रधानमंत्री चेरिंग चोबगाय ने क्षेत्रीय संबंधों और खासकर भारत से अपने संबंधों को प्राथमिकता दी। देश की अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत सुधार हुआ और भूटान ने संबंधों में एक नैरंतर्य बनाये रखा। लेकिन चोबगाय ने स्वीकार किया था कि उनके देश को प्रसिद्ध ‘ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस’ के चश्मे से देखना त्रुटिपूर्ण होगा, बेरोजगारी, बढ़ता ऋण, भ्रष्टाचार और गरीबी भूटान के बड़े मुद्दे हैं और इनकी अनदेखी कोई सरकार नहीं कर सकती। चोबगाय कार्यकाल में ही चीन ने भूटान से की गयी अपनी सीमा सहमति का उल्लंघन करते हुए दोकलाम क्षेत्र जो कि भारतीय सामरिक दृष्टिकोण से बेहद अहम है, पर अवैध निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया, जिससे भूटान-चीन-भारत के मध्य तकरीबन सत्तर दिनों तक तनातनी बनी रही। भारत के लिए बेहतरीन बात इसमें यह रही कि भूटान ने एक स्पष्ट रुख लिया और कहता रहा कि उल्लंघन चीन की ओर से हुआ। नेपाली मूल के भूटानी लहोतशम्पाओं का निर्वासन भी एक तनाव का मुद्दा है, जिससे भूटान को नेपाल के साथ मिलकर सुलझाना होगा अन्यथा यह मुद्दा गंभीर सुरक्षा का सबब बन सकता है। 

आज के चुनावों पर भारत चीन और नेपाल की भी दृष्टि है कि आखिर भूटान की जनता एक नए दल डीएनटी को चुनती है अथवा देश को पहला प्रधानमंत्री देने वाले दल डीपीटी को फिर एक बार यह मौका देती है। वैसे यह भी एक तथ्य है कि इसबार के चुनाव माहौल में 2013 की भाँति भारत कोई विशेष मुद्दा नहीं बना। प्रथम चरण में शामिल चारो दलों के चुनावी घोषणापत्रों में बल्कि भारत की चीन के मुकाबले अहमियत स्पष्ट दिखी। परंपरागत रूप से भूटान की वैदेशिक नीति पहले ब्रिटिश भारत और फिर 2007 के पहले तक स्वतंत्र भारत ही तय करता रहा है। नवीन लोकतांत्रिक भूटान, अपनी संप्रभुता के एक महत्वपूर्ण आयाम के रूप में स्वतंत्र विदेश नीति के लिए निश्चित ही प्रयास करेगा जिसमें भारत से उसके संबंध प्रगाढ़ बने रहें और चीन सहित अन्य शक्तियों से भी एक संतुलन सधा रहे। निवेश की आकांक्षा से अपने उत्तर-पूर्व पड़ोसी चीन के प्रति आकर्षण से भूटान इसलिए भी स्वयं को बचाता है क्योंकि भारत के उसके संबंध बेहद विश्वासपूर्ण रहे हैं तथा दोकलाम के बाद तो चीन की साख इन अर्थों में संदिग्ध ही रही है। इसलिए ही इतना तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि भूटान में चाहे डीएनटी अथवा डीपीटी की सरकार बने, भारत से भूटान के संबंध सकारात्मक रूप से प्रगाढ़ ही होंगे।    


Sunday, October 7, 2018

आवाज़ में दिखते थे हज़ारों नज़ारे

साभार: अहा ज़िंदगी, भास्कर 


“आपने तो उस दिन हमारे दिलों की धड़कनें 
बार-बार ऊपर-नीचे कीं।”

1975 में संसद की कार्यवाही रुकवाकर भारत-पाकिस्तान हॉकी फाइनल मैच देखने वालीं प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मशहूर उद्घोषक जसदेव सिंह जी से अपनी मुलाकात में ये उपरोक्त कथन कहे थे। जसदेव सिंह जी की गहरी आवाज के हर उतार-चढाव पर हर हिन्दुस्तानी के दिल की धड़कनें अपनी लय फिर पाने के लिए बेताब हो जाती थीं। बीते 25 सितम्बर 2018 से अब इस आवाज की बस यादें महकेंगी जो कुछ यों शुरू होती थीं:

“मै जसदेव सिंह बोल रहा हूँ !”

वो दौर था जब रेडियो ही वह जादुई पिटारा था जिसे कभी भी बुद्धू बक्सा नहीं कहा गया और जो अपनी आवाज के जरिये हर आमोखास के कानों में मनोरंजन का गूँज भर देता था। कान सुनते थे, आँखें देखने लग जाती थीं, मन कुलाँचे लेने लगता था और ज़ेहन में हर एक लफ्ज रुई के फाहों के मानिंद उतरते चले जाते और फिर एहसासों के मखमली तसव्वुर जब-तब उभर हर दिल को गुदगुदाते रहते। रेडियो के कद्रदान और खेलप्रेमी ये जानते हैं कि ऐसा तब जरूर होता जब अल्फ़ाज़ जसदेव सिंह के हों। हॉकी का खेल एक तेज खेल है। इसकी कमेंट्री करने के लिए आवाज में वही जोश, वही फुर्ती होनी चाहिए जो एक उम्दा हॉकी खिलाड़ी में होती है। यह एक मुमकिन बात न मानी जाती जो हमारे देश में जसदेव सिंह जैसा शुद्ध, स्पष्ट उच्चारण वाला और हिंदुस्तानी जुबान का कमेंटेटर न पैदा होता। 

18 मई, 1931 को बौंली, राजस्थान में जन्में जसदेव सिंह की शिक्षा पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी में हुई पर महात्मा गाँधी की अंतिम यात्रा के दिन जब रेडियो पर उन्होंने मशहूर अंग्रेजी प्रस्तोता मेलविल डी मेलो की आवाज सुनी, तो ठान लिया कि वे हिंदी में ही कमेंट्री करेंगे। धुन के पक्के बीए-एलएलबी जसदेव सिंह का सफर 1955 में आकाशवाणी जयपुर से शुरू हुआ। जसदेव सिंह जी को रेडियो और दूरदर्शन पर बोलने की हर प्रचलित विधा का अनुभव था। समाचार वाचक, खेल उद्घोषक, संचालन, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय अवसरों के प्रस्तोता, जवाहर लाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, संजय गाँधी, इंदिरा गाँधी के अंतिम यात्रा के वर्णनकार की भूमिका के साथ ही जसदेव सिंह जी ने देश के पहले अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा की यात्रा का अप्रतिम रोमांच भी देशवासियों से साझा किया। पाकिस्तान में भी आपकी लोकप्रियता का आलम यह था कि टेलीविजन पर भले ही खेल देखा जाता लेकिन आँखों देखा हाल सुनने के लिए ऑल इंडिया रेडियो ही ट्यून किया जाता। आपको गुरु नानक देव के जन्मोत्सव कार्यक्रम के वर्णन के लिए पाकिस्तान के ननकाना साहब में भी आमंत्रित किया गया। पद्म श्री एवं पद्म भूषण से सम्मानित कमेंटेटर जसदेव सिंह की आवाज और हॉकी का खेल एक ज़माने में एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे। हॉकी के अलावा उन्होंने क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस के कई मशहूर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी कमेंट्री करके अपने आवाज का लोहा मनवाया। आपको नौ ओलंपिक आयोजन, आठ हॉकी विश्व कप एवं छह एशियाड गेम्स में बतौर कमेंटेटर काम करने का गौरव प्राप्त है। लोग उनके आवाज के यों दीवाने थे जैसे वे उम्दा खिलाडियों के कौशल के दीवाने होते थे। 1988 सियोल ओलंपिक में उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार ‘द ओलंपिक ऑर्डर’ से नवाजा गया। रेडियो की दुनिया की सबसे मशहूर तिकड़ी, देवकीनंदन पांडेय, अमीन सयानी, जसदेव सिंह से ही बनती है और बनती रहेगी। 

उनके आवाज की खनक खेलों के हर उतार-चढाव को बाखूबी बयां करती थी तो स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस के मौके पर देश के जनगणमन को राष्ट्रीय स्वाभिमान से ओतप्रोत कर देती थी। 1962 की हार से निराश जनता, 1963 की वह परेड कत्तई नहीं भूल सकती थी जब नेहरू स्वयं पैतीस-चालीस सांसदों के साथ परेड में शामिल थे और जसदेव सिंह की आवाज ने जन-जन के मन तक दस्तक दे दी थी। लगभग उन्चास बार जसदेव जी ने ऐसे राष्ट्रीय अवसरों पर कमेंट्री की थी। जसदेव सिंह जी को अपने प्रेरक मेलविल डी मेलो के साथ मिलकर भी कमेंट्री का मौका मिला और वे मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर ए. एफ. एस. तलयारखान की तारीफों की बड़ी कद्र करते थे। जसदेव सिंह जी की आवाज में एक मनमाफ़िक रवानगी थी जो उनके जीवन में भी दिखती थी। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी गीता बजाज की पुत्री कृष्णा से शादी की थी और उस समय इस पंजाबी व मारवाड़ी की शादी की बड़ी चर्चा भी हुई थी। जीवन के प्रति कितने जिंदादिल थे कि वे बिटिया प्रीती सिंह के लिए अपने हर विदेशी दौरों से गुड़िया लाना नहीं भूलते थे, इसका एक बेहतरीन कलेक्शन उनके यहाँ देखा जा सकता था। एक हॉलीवुड फिल्म ‘द विंड कैननॉट रीड’ में आपने अभिनय भी किया और इसके साथ ही लेखक जसदेव सिंह के रूप में भी आपने अपना एक अलग ही मुकाम बनाया। धर्मयुग जैसी अपने समय के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों खेल और अन्य विषयों पर आपने आलेख लिखे। पाँच किताबें भी जसदेव जी ने लिखीं और अपनी जीवनी ‘मै जसदेव सिंह बोल रहा हूँ’ भी पूरी की जिसमें जीवन के तमाम रोचक किस्से मिलते हैं। 

Wednesday, October 3, 2018

भारत और चीन के मध्य नेपाल ब्रिज या बफर स्टेट?


साभार: नवभारत टाइम्स 

चीन-नेपाल संबंधों के बारे में इतिहास के पन्ने बहुत कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं और इसका एक बेहद महत्वपूर्ण कारण भौगोलिक रूप से नेपाल का चीन से केवल उत्तर की ओर से जुड़ना है। तिब्बत की ओर से चीन से जुड़े नेपाल पर चीन की नज़र हमेशा रही है लेकिन भारत-नेपाल संबंध व भारत की तिब्बत मुद्दे पर दिलचस्पी को देखते हुए चीन सशंकित ही रहता आया था। नेपाल के राजतांत्रिक लोकतंत्र से लोकतांत्रिक गणतंत्र बनने की विकासयात्रा के मध्य उभरे वामपंथी नेतृत्व की उपस्थिति से चीन को नेपाल के करीब आने में एक सहूलियत अवश्य हुई है। नेपाल जहाँ चीन की ओबोर नीति को समर्थन देने वाले देशों में अग्रणी देश बना वहीं उसी ओबोर नीति के तहत चीन ने नेपाल में भारी निवेश करना शुरू किया। सितम्बर माह में ही चीन ने 2.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की घोषणा की जो चीन-नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेलवे लाइन विकसित करने में प्रयुक्त होगा। चीन और नेपाल ट्रांजिट प्रोटोकॉल के लिए सहमत हुए हैं जिससे नेपाल अपनी जरुरत के मुताबिक छह बॉर्डर पॉइंट्स यथा- रसुवा, तातोपानी, कोरला, कीमाथांका, यारी और ओलांगचुंग गोला का इस्तेमाल कर सकेगा। इसके तहत चीन ने अपने चार बंदरगाह तियानजिन, शेनजेन, लिआन्यूंगांग व झांजीआंग खोल दिए, इसमें तीन लैंझाउ, ल्हासा व शिगास्ते जैसे शुष्क बन्दरगाह भी शामिल हैं। चीन केरांग-काठमांडू रेल परियोजना (ट्रांस हिमालयन मल्टीडाईमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क) पर काम कर रहा है और साथ ही परस्पर वायु व भूमि संपर्कों के फैलाव पर भी ध्यान दे रहा है। कोसी, गंडकी और करनाली आर्थिक गलियारे पर प्रगति देखी जा सकती है। नेपाल-चीन के मध्य सांस्कृतिक-शैक्षणिक सहयोग की अन्य घोषणाएँ तो जब-तब आती ही हैं, इनके मध्य सैन्य कूटनीति में आयी तेजी भी गौरतलब है। माह अप्रैल में सागरमाथा फ्रेंडशिप मिलिटरी एक्सरसाइज फेज वन के बाद इस महीने नेपाल चेंगदू में इसके दूसरे संस्करण में भी परिभाग कर रहा है। यों तो नेपाल, भारत के साथ एक वर्ष में दो बार होने वाले सूर्यकिरण मिलिटरी एक्सरसाइज में भी परिभाग करता है, जिसमें सागरमाथा मिलिटरी एक्सरसाइज के मुकाबले कहीं अधिक सैन्य बल संलग्न होता है लेकिन नेपाली सरकार ने इसी महीने भारत द्वारा आयोजित बिम्सटेक बे ऑफ़ बंगाल जॉइंट मिलिटरी एक्सरसाइज के पहले संस्करण में परिभाग करने से सहसा ही इंकार कर दिया और कूटनीतिक संबंधों को देखते हुए नेपाल ने अपना पर्यवेक्षक भारत भेज दिया।

ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सामरिक संबंधों के संदर्भ में यदि नेपाल के भारत और चीन से संबंध परस्पर तौले जाएँ तो यकीनन भारत-नेपाल संबंध, नेपाल-चीन संबंध से अधिक स्वाभाविक, अधिक गहरे और कभी भी अपनी महत्ता नहीं खोने वाले नज़र आएंगे। लेकिन 2015 के विनाशकारी भूकंप के बाद तथाकथित भारतीय सीमाबंदी के बाद नेपाली जनमानस ने एक राष्ट्र पर अतिनिर्भरता के दुष्परिणाम पर सोचने को मजबूर हुए। इसीसमय चीन ने भी तातोपानी में अपना एकमात्र व्यापारिक चेकपॉइंट यह कहते हुए बंद किया था कि वहाँ उन्हें चीन विरोधी गतिविधियों की आशंका है लेकिन नेपाली जनमानस पर फ़िलहाल राजसत्ता के विरुद्ध हुई क्रांति के वामपंथी नायक इतने प्रभावी हो चुके हैं कि उन्होंने चुनाव में तथाकथित भारतीय सीमाबंदी को अधिक तूल दिया। चीन के भारी-भरकम निवेश पर एक तरह के ऋण-बंधन में फंसने का भय स्पष्ट है। श्रीलंका के उदाहरण से नेपाली कूटनीतिक समाज भी अवगत है। तथ्य यह भी है कि सन 2015 से ही नेपाल-चीन तातोपानी व्यापारिक सीमापॉइंट बंद है और एकमात्र रासूवगाड़ी-केरुंग पॉइंट अपने ख़राब अवसंरचना विकास के कारण सुस्त पड़ा है। चीन ने अवश्य ही स्थलबद्ध नेपाल के लिए अपने चार बंदरगाह खोल दिए हैं किन्तु नेपाली घरेलू मीडिया में यह भी विमर्श समानान्तर चल रहा है कि नजदीकी चीनी बंदरगाह भी 2600 किमी दूर है जबकि भारत का हल्दिया पोत काठमांडू के दक्षिण में महज 800 किमी की दूरी पर है। भारत-नेपाल सीमा से कोलकाता की दूरी जहाँ 742 किमी है, वहीं विशाखापत्तनम 1400 किमी की दूरी पर है। परेशानी भारतीय सीमा पर कस्टम संबंधी लालफीताशाही वाले प्रावधानों व भ्रष्टाचार से है। हालाँकि, रक्सौल-काठमांडू और जयनगर-जनकपुर-कुर्था रेलवे लाइन पर इस वक्त भारत जोरशोर से काम कर रहा है। बीरगंज-रक्सौल, बिराटनगर-जोगबनी, भैरहवा-सोनौली और नेपालगंज-रेपड़िया सहित चार बड़े कस्टम चेकपॉइंट्स और नेपाल के तराई क्षेत्र से जुडी सडकों का विस्तारण व उनकी मरम्मत का काम भी प्रगति पर है। 

मन में कहीं भूटान-भारत संबंध को रखते हुए जब नेपाल से भारतीय अपेक्षाओं की पड़ताल की जाएगी तो निराशा हाथ लगेगी ही। भारत-नेपाल संबंधों की तूलना मालदीव चुनावों से उभरे नए समीकरणों से भी करना उचित नहीं होगा क्योंकि जिसतरह मालदीविअन जनमानस ने सत्ता दबाव को धता बताते हुए चीनपरस्त सरकार के खिलाफ मत दिया उसीप्रकार नेपाली जनता ने भी वामपंथ की ऐसी सरकार चुनी है, जिसका झुकाव चीन की तरफ है। यह सच स्वीकारना होगा कि नेपाल अपने कूटनीतिक व सामरिक संबंधों में एक सुरक्षित संतुलन की सम्भावना तो तलाशेगा ही और इसी संतुलन की तलाश उसे चीन से नए-नए समझौतों की तरफ ले जाती है। एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में यकीनन नेपाल एक सौदेबाज देश के रूप में व्यवहार कर रहा है। नेपाल ने तिब्बत-सन्दर्भ में चीन से कहा है कि वह अपनी जमीन चीन-विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल नहीं होने देगा, इसीतरह उसने भारत को भी आश्वासन दिया है कि उसकी भारत के साथ खुली सीमा का दुरूपयोग आतंकवादी गतिविधियों में वह नहीं होने देगा। यह एक तथ्य है कि भारत के तनिक सुलझे व गंभीर प्रयासों से परस्पर संबंधों में पुनः नयी ऊष्मा भी लाई जा सकती है। भारत और नेपाल का इतिहास व समाज एक-दूसरे का स्वाभाविक साझीदार बनाते हैं और भूगोल इसमें भारत को चीन के सापेक्ष नेपाल के लिए हमेशा ही वरीय देश बनाकर रखता है। इस स्थिति में भारत को अपना अवसर अवश्य ही साधना चाहिए।  

नेपाल के नवगठित सरकार के मुखिया खडग प्रसाद ओली बेहद ही कूटनीतिक तरीके से कहते हैं कि नेपाल दो शक्तिशाली राष्ट्रों चीन व भारत के मध्य एक बफर स्टेट की तरह नहीं अपितु ब्रिज स्टेट की तरह अपना भविष्य देखता है। पहली नज़र में यह एक बेहद सकारात्मक बयान लगता है लेकिन नेपाली सरकार की तरफ से फ़िलहाल ऐसी कोई पहल नहीं दिखती, जिससे भारत और चीन के संबंधों में नेपाल एक सेतु की तरह कार्यरत दिखे। वैसे रणनीतिक रूप से भी नेपाल अभी स्थिति में है भी नहीं कि वह इन दोनों शक्तियों के मध्य कोई पुल बना सके लेकिन इस बयान से उसकी यह मंसा अवश्य ही स्पष्ट है कि नेपाल एक बफर स्टेट की तरह दोनों शक्तियों भारत एवं चीन के सुझाये संकेतों के अनुरूप चलने की बजाय उनके मध्य एक निर्णायक शक्ति के रूप में परस्पर संबंधों का निर्वहन करना चाहता है। 

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