Click me for the articles on Political Literacy


Sunday, December 11, 2016

त्योहारों के रेलें, मेले और भारत

डॉ. श्रीश पाठक

भारत में भानमती के कुनबे बहुत है । ये इसकी खूबसूरती है, पहचान भी और है इसकी मजबूती भी । अपने देश में जाने कितने देश बसते हैं । तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की आदतें, रस्में तरह-तरह की और तहजीबें तरह-तरह की । तरह-तरह के पकवान, तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह की बोलियाँ और तरह-तरह के त्यौहार । हाँ, त्यौहार...! अपना देश तो त्योहारों का देश है और भारत देश है मेलों का भी । हमारे यहाँ मंडी तो नहीं पर मेलों की रिवायत रही है । कोस-कोस पे पानी का स्वाद बदलता है और तीन-चार कोस पे बोली बदल जाती है और तकरीबन हर पंद्रह-बीस कोस बाद भारत में कोई न कोई मेले का रिवाज मिल जायेगा । प्रसिद्द मेलों की बड़ी लम्बी फेहरिश्त है और कमोबेश पूरे भारत में है यह । मेले जो कभी हर महीने लगते हैं, कुछ बड़े मौसम-परिवर्तन पर लगते हैं और कुछ साल के अंतराल पर लगते हैं । इन सतरंगी मेलों में भांति-भांति के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, एक-दूसरे की खासियतें समझते हैं, जरूरतें साझा करते हैं, रिश्ते बनते हैं, नाटक, खेल देखते हैं, इसप्रकार मेले दरअसल स्थानीयता का उत्सव होते हैं । त्योहारों का भी मूलभूत दर्शन उत्सव ही है । कभी प्रकृति-परिवर्तन का उत्सव है, कभी संबंधों का उत्सव है, कभी फसल पकने का उत्सव है तो कभी आस्था का उत्सव है । आस-पास की प्रत्येक वस्तु की महत्ता समझना, हो रहे हर परिवर्तन का स्वागत करना सिखलाते हैं ये उत्सव, ये त्यौहार ।
भारत का राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद से मूलतः भिन्न है । पश्चिमी राष्ट्रवाद के हिसाब से चलते तो इस देश के जाने कितने विभाजन सहसा ही हो जाते और यकीन मानिए लोकतंत्र की राह को अपनाने वाला भारत लोकतंत्र के अंतर्गत आने वाले ‘आत्मनिर्णयन के अधिकार (Right to Self-Determination)’ की वज़ह से उन्हें शायद ना रोक पाता ना नाज़ायज ही ठहरा पाता..! पर स्वतंत्रता-संघर्ष के जमाने से ही लड़ते-भिड़ते हमारे युगनायकों ने भविष्य के भारत की यह तस्वीर भांप ली थी और उन्होंने राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण के मूलभूत मायने ही बदल दिए । भारतीय राष्ट्रवाद ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत पर चलता है । यह Heterogeneity (विभिन्नता-विविधता) का आदर करता है जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद  Homogeneity (समुत्पन्नता-समरूपता) पर आधारित है। हमारे देश के राष्ट्रवाद की करारी नींव में जो इटें जमी हैं वे सतरंगी हैं, वे एक रंग की नहीं हैं । इसलिए जैसे ही और जिस मात्रा में हम साम्प्रदायिक होते हैं, उतनी ही मात्रा में हम राष्ट्रवादी नहीं रह जाते । आँख मूंदकर हम पश्चिमी राष्ट्रों से तुलना करते हैं और उनके राष्ट्रवाद के मानकों से हम अपने सतरंगी समाज के बाशिंदों को चाहते हैं एक ही रंग में रंगना, यहीं चूक होती है ।
भानमती के भिन्न-भिन्न कुनबों से भारत एक राष्ट्र बन सका है तो राष्ट्रवाद की स्वदेशी संकल्पना से ही । राष्ट्रवाद की यह स्वदेशी संकल्पना ‘अनेकता में एकता’ की चाशनी में भीगी-पगी है और आधुनिक राष्ट्रवाद के मानकों को भी संतुष्ट करती है । समझने की जरुरत है कि –भारत की एकता, ‘एक-जैसे’ होने से नहीं हैं बल्कि भारत की एकता, अनेकताओं की मोतियों को एक सूत्र में जोड़ने वाली भारतीय राष्ट्रप्रेम से उर्जा पाती है और निखरती जाती है । जिस क्षण से हमने भारत की विविधता को मान देना समाप्त किया, हमारा राष्ट्रीय कलेवर, सारा ताना-बाना बिखर जायेगा । चर्चिल जैसे लोग हमारे राष्ट्रवाद में अन्तर्निहित कमजोरी देखते थे, मजाक उड़ाते थे, कहते थे-आजादी के पंद्रह साल भीतर ही यह कुनबा बिखर जाएगा, हमने उन्हें गलत साबित किया; हमने जता दिया कि पश्चिमी राष्ट्रवाद जिसकी विश्व कवि रवीन्द्र खुलकर आलोचना करते थे, उस राष्ट्रवाद से विश्वयुद्ध उपजते हैं, यूरोप में छोटे-बड़े कई विभाजन होते हैं, कई छोटे राष्ट्र उभरते हैं, पर भारतीय राष्ट्रवाद से अलग-अलग, तरह-तरह के लोग भी साथ मिलजुलकर उसकी अस्मिता अक्षुण्ण रखते हैं ।
भारतीय राष्ट्रवाद सफल हो सका, अपनी परम्पराओं को निभाने की जीवटता से । अलग-अलग धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, नृजाति, प्रजाति, समुदाय, खान-पान होने के बावजूद सभी लोग उत्साह से सभी के त्योहारों में शामिल होते हैं । सभी उत्सव धूमधाम से मनाये जाते हैं । सरकारें भी इन त्योहारों को मनाती हैं और अपना समसामयिक सहयोग देती हैं । फिर समय-समय पर जगह-जगह आयोजित मेले, पारस्परिक मेलजोल का खूब मौका देते है । सभी, सभी त्योहारों में शामिल हो सकें, मेलों में आमद दुरुस्त बनी रहे, इसमें भारतीय रेलों का महती योगदान है । आज का भी भारत इन रेलों से ही सफ़र करता है । रेलों की शुरुआत भले ही अंग्रेजों ने की हो पर हम भारतीयों ने इसे अंग्रेजीदां नहीं बनने दिया । आम आदमी इसपर चल सके यह प्राथमिकता पर रहा भले ही इसमें घाटे की मार सहनी पड़ी । अंग्रेजों का ध्यान माल ढो मुनाफा बटोर कही और पहुँचाना था हमारा ध्यान देश के हर नागरिक तक रेल पहुँचाने पर अधिक केन्द्रित रहा । इसप्रकार उन्नीस सौ इक्यावन में राष्ट्र को समर्पित इन रेलों ने भारतीय राष्ट्रवाद के मूलमंत्र ‘अनेकता में एकता’ को जीवंत बनाये रखा है । भारत का रेलवे नेटवर्क दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है । भारतीय रेल ने भारतीय राष्ट्रवाद के सफ़र में निर्णायक अप्रतिम  योगदान दिया है और यह जारी है ।
भारतीय रेलवे का महत्त्व इन अर्थों में रेखांकित किया जाना आवश्यक है । इसे निजी हाथों में सौपना, इसे बस एक वस्तु समझना है, जिसे गाहे-बगाहे बाजार में धकिया दिया जाना है । भारतीय रेलवे एक बड़ा कार्यस्थल है, इसका एक राष्ट्रीय महत्त्व है, यह देश के बड़े गतिमान प्रतीकों में है । उन्नीस सौ चौबीस में अकवर्थ कमिटी ने इसकी तत्कालीन महत्ता समझते हुए  आम बजट से इतर इसका बजट बनाने की अनुशंसा की थी ताकि यह सही मायनों में स्वायत्त रह सके, और संसाधनों की कमी इसके महत्त्व की पूर्ती के मार्ग में ना आये । भारत सरकार इसका बजट अगर आम बजट में ही जोड़ने की तैयारी में है तो यकीनन यह इसके सांगोपांग आयामों की अवहेलना है ।
C:\Users\Shree Tab\AppData\Local\Microsoft\Windows\INetCache\IE\2QF3WLOX\writing-pen-clean-black-icon-25429206[1].jpgडॉ. श्रीश  

Saturday, December 10, 2016

राजनीति एक शास्त्र भी है....!





"......s s ....! मिल नहीं पायी इन्क्रीमेंट, बहुत पॉलिटिक्स है..!"


"सिलेंडर नहीं मिल पाया आज भी, बड़ी राजनीति है, भाई !"
"पॉलिटिक्स पढ़ते हो, इसमें तुम्हारी ही कोई राजनीति होगी.....!"


ये जुमले खूब सुने होंगे, आपने l और यह भी सुने होंगे-


"तुम ज्यादा मत उड़ो, अच्छे से समझते हैं तुम्हारी साइकोलॉजी......! "


"अपनी इकोनॉमिक्स खंगाल लो, आर्डर देने से पहले....! "


"जियोग्राफी देखी है अपनी, जो मॉडलिंग करने चले हो...! "


और ये भी सुना होगा आपने कभी कभी -


"तेरी पर्सनालिटी की फिजिक्स समझता हूँ, शांत ही रहो..! "


"तेरी उसकी केमिस्ट्री के चर्चे हैं बड़े.....! "


"तेरा मैथ कमजोर है पर गणित बहुत तेज है, शातिर कहीं का ....!"


हम सामान्य व्यवहार में शब्दों का बड़ा ही अनुशासनहीन प्रयोग करते हैं l इसमें इतना भी कुछ गलत नहीं l एक सीमा तक इससे भाषा को प्रवाह मिलता है, नए प्रयोग उसे लोकप्रिय और समृद्ध बनाते हैं l किन्तु शब्दों का चयन वक्ता के परसेप्शन को जरुर ही स्पष्ट करता है l ऊपर लिखे वाक्य यह अवश्य बताते हैं कि वक्ता 'विषय-उपविषय-शास्त्र' की मूल समझ तो नहीं ही रखता है l उसे नहीं पता, कि कितनी सामान्य सी बात कहने के लिए उसने कितने महान शब्दों का प्रयोग किया है l ऐसा नहीं है कि उसके पास दूसरे शब्द नहीं हैं, किन्तु यह निश्चित है कि उसे शास्त्र की महत्ता का भान तो नहीं ही है l 


अध्ययन का उद्देश्य कठिन से सरल की ओर ले जाना है l जानने को विषय अनगिन हैं l उन विषयों के भीतर फिर जाने कितने उपविषयों के पट खुलते हैं l खास विषयों को एक वैज्ञानिक विधि से अध्ययन करने का स्थान शास्त्र है, जहाँ एक खास अनुशासन लागू होता है, जो उसके उपागमों से व्यक्त होता है l जानने लायक बात यह भी है कि विज्ञान अब एक विषय या अनुशासन ही नहीं रह गया है बल्कि एक ऐतिहासिक आन्दोलन के बाद अब यह एक सर्वसम्मत विधि (method) के तौर पर स्थापित है l इसलिए विज्ञान का अर्थ केवल फिजिक्स, केमिस्ट्री से नहीं है, इसे तो प्राकृतिक विज्ञान कहते हैं l इन्हीं अर्थों में राजनीति के शास्त्र को राजनीति विज्ञान भी कहते हैं, अर्थात राजनीतिक विषयों का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन l


थोड़ी सी कहीं षडयंत्र की बू आयी, हम बोलते हैं राजनीति हो गयी l राजनीति का शाब्दिक अर्थ ही लोप हो गया हो जैसे l राजनीति का अर्थ राज्य की नीति से है, जिसका अध्ययन राजनीति शास्त्र कहलाता है l राजनीति भले ही नकारात्मक अर्थों में रूढ़ हो गयी हो पर अब भी यह है एक शास्त्र ही l राजनीति शब्द का पतन, निश्चित तौर पर यह दिखाता है कि समाज राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं है, लोग राजनीति से घृणा करते हैं, शरीफ लोग राजनीति में नहीं आना चाहते, यह दिखाता है कि ज्यादातर लोग राजनीति में भाग लेना नहीं चाहते l राजनीति इतनी महान कला है जो सभी के हितों को एक ही समय में पूरा करने की कोशिश करती है, इससे अछूता रहा ही नहीं जा सकता l आप सब्जी बेचते हों या जमीन बेचते हों, आप पैदल चलते हों या उड़ते हों जहाज में, राजनीति आपको गहरे छूती है l आप आठ घंटे ही काम करते हैं अपनी पूरी कुशलता के साथ पर फिर भी बचत कम होती जाती है, ध्यान दीजिये, कहीं किसी दूर बैठे नीति निर्माताओं की वज़ह से आपके रुपये की कीमत कम हो गयी है, आपके बैंक में रखे पैसे की अहमितयत अब उतनी नहीं रह गयी है l बड़ी मेहनत से एम. बी. ए. की डिग्री ली है आपने तुरंत इंजीनियरिग की डिग्री के बाद, एक जापान की कम्पनी का ठेका हाथ आता है आपको आपकी काबिलियत की वज़ह से और अचानक ही आपके दफ्तर के पास दंगे भड़क उठते हैं, आप समझ नहीं पाते अब क्या करें...उस जापानी ठेके का क्या, जो है- वह भी चला जाता है....और आप शान से सभ्य-शरीफ आदमी बनते हुए चुनाव के दिन वोट डालने नहीं जाते तो दरअसल आप नहीं समझते कि राजनीति क्या होती है l आप राजनीति से घृणा करते हैं तो शायद आपको नहीं पता कि कहीं गहरे आप अपने ही विरुद्ध खड़े हैं l आप वोट डालने जाते हैं क्योंकि सहसा यह एक स्टेटस सिम्बल है, एफबी पर अपडेट डालना है, पर आप वोट देते हैं अपनी पिछड़ी मान्यताओं के ही आधार पर, तो माफ़ करिए आप काबिल हैं पर राजनीतिक समझ आपकी जीरो है l अगर आपको लगता है कि ऐसे ही चल जायेगी आपकी जिन्दगी तो शायद आप कभी नहीं जान पाएंगे कि घर में चूहे कहाँ से आ रहे हैं l


सामान्य विधि की जानकारी ना होने से आप जानते हैं कि वकील आपके महंगे जूतों के तलवे घिसा देता है l सामान्य वित्त की जानकारी ना होने से आप जानते हैं कि बचत की सेंध आप कटने से रोक नहीं पाते l सामान्य चिकित्सा नहीं आने पर आपसे फर्स्ट-ऐड नहीं हो पाता, और डॉक्टर आपको डांटता है कि पढ़े लिखे हैं आप, फिर भी मरीज को इतना कुछ सहना पड़ा l ठीक उसी तरह से राजनीति शास्त्र का ए. बी. सी. डी. नहीं आने से ही पिछले ६६ सालों से नेता बदल रहे, नारे बदल रहे पर विकास का परिवर्तन नहीं हो रहा-आपको यह बात समझ में नहीं आती; जल्दी से ठीकरा किसी और पर फोड़ आप रिमोट से चैनेल बदलने लग जाते हैं l ये नहीं समझना चाहते आप-हम क्योंकि जैसे उम्र अधिक हो जाने पर साक्षर होने की चाह धुंधली हो जाती है उसी प्रकार अब हम राजनीति पढ़ना नहीं चाहते बस बोलना चाहते हैं और करना चाहते हैं l राजनीति की सामान्य समझ तो रखनी ही होगी l


राजनीति एक और विडम्बना की शिकार है, हालाँकि यह उसकी तरलता और व्यापकता भी व्यक्त करती है कि- अपना मत रखने का अधिकार सभी को है पर यहाँ राजनीति के एक्सपर्ट सभी हैं l मेडिसिन पर हम डॉक्टर की राय लेना चाहते हैं, विधि पर अधिवक्ता की, प्राविधि पर अभियंता की पर राजनीति पर राजनीतिक विश्लेषक की राय हम नहीं लेना चाहते l आप मानिए अपने ही मत को पर राजनीतिक विश्लेषक की आवश्यकता को गौड़ मत समझिये l राजनीतिक समझ के लिए उसकी भी उतनी ही आवश्यकता है l  एक ऐसे समाज में जहाँ भेद-भावों की इतनी लम्बी फेहरिश्त है उसमे एक शास्त्रगत भेदभाव भी है l आज भी प्राकृतिक विज्ञान को सामाजिक विज्ञान से ऊँचा दर्जा दिया जाता है l जाने कितने प्राकृतिक विज्ञान विषयों के पिता अरस्तु ने राजनीति दर्शन को मास्टर साइंस कहा है l ये समझने वाले बात है कि प्लेटो की अकेदेमिया में दर्शन पढने के लिए गणित की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी l बड़े बड़े ग्रीक गणितज्ञ महान दार्शनिक भी थे; पाइथागोरस, प्लितिनी, आदि l पहले ज्ञान और बोध पर ही काम होता था l अध्ययन की सुविधा के लिए ज्ञान के विभाग बांटे गए l कालांतर में ये विभाजन इतने कड़े हो गए कि सभी एक दूसरे के बिना दिशाहीन होने लगे और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समस्त विश्व के विचारकों ने माना कि सभी शास्त्रों को इंटर-डिसीप्लीनरी अप्रोच अपनाना होगा l अभी भी बहुत से पढ़े लिखे लोग भी यह अप्रोच नहीं अपनाना चाहते, जिसे दो दो विश्व युद्धों की विभीषिका के बाद सीखा गया था l जानना यह भी चाहिए कि प्राकृतिक विज्ञान विषय स्टेटस कोइस्ट (Status Quoist) कहलाते हैं और कला विषय डायनामिक कहलाते हैं l


जैसे एक व्यक्ति को उसकी दिनचर्या के उचित निर्वहन के लिए प्रत्येक वस्तु और सभी सूचनाएँ महत्त्व रखती हैं, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति के समुचित बोध के लिए सभी शास्त्रों की सामान्य जानकारी अपेक्षित है l इन सबमे राजनीति का सर्वाधिक पतन हुआ है, हमें राजनीति शास्त्र की सामान्य समझ बनानी होगी, राजनीति में भाग लेना होगा, राजनीतिक प्रक्रियाओं का ज्ञान रखना होगा अन्यथा यह स्थान अकुशल लोगों का होगा, और फिर जिस मीडिया का काम रिपोर्टिंग का है वह मुद्दे पकड़ाने लग जाती है, जिस जज का काम न्याय का है वह कानून बनाने लग जाता है, और जिस पुलिस का काम कानून पालन कराने का है वह न्याय करने लग जाती है...और हम सोचते हैं कि इसमें हमारी क्या गलती....इस देश का कुछ नहीं हो सकता l राजनीति एक शास्त्र भी है,  जिसकी सामान्य जानकारी ही आपको जिम्मेदार नागरिक बनाती है और आपके राष्ट्रराज्य में तभी सुशासन आ सकता है l   

(न्यूजकैप्चर्ड के लिए डॉ. श्रीश)

Printfriendly