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Wednesday, February 15, 2017

मतदान ही जनता का सर्वाधिक शक्तिशाली हथियार

                                                                                                                                        डॉ.श्रीश पाठक 

उत्तर प्रदेश एक बड़ा राज्य है, भारत में रहने वाली सर्वाधिक जनसंख्या का वितरण यहाँ इस कदर है कि अक्सर कुछ लोग चाहते हैं कि विकास और प्रशासन की सहूलियत के लिए इस प्रदेश को चार भागों में बांटा जाना चाहिए। जनकल्याण और विकास का रास्ता इतना सीधा-सपाट नहीं होता, कि इसपर एक सर्वमान्य राय कायम की जा सके क्योंकि राजनीति में सबको लेकर चलना होता है। सबके विकास के रास्ते कुछ यों होते हैं कि बहुधा एक का लाभ दूसरे की हानि हो जाती है, इसलिए यह एक कठिन प्रश्न है जिसका जवाब राजनीति को हल करना होता है। राजनीति स्वयमेव समाधान प्रस्तुत नहीं करती अपितु यह जन-भागीदारी की मोहताज़ होती है। लोकतंत्र के युग में तो कोई राजप्रशासन उतना ही प्रभावी व परिणामोन्मुखी होगा जिस अनुपात में जन अपनी भागीदारी गण में करेगा। अभी संपन्न हुए पहले चरण में तिहत्तर विधानसभाओं के मतदान संपन्न हुए जिसमे पिछली बार की तुलना में लगभग तीन प्रतिशत की वृद्धि पायी गयी। यह वृद्धि तोषदायी तो है पर आश्वस्तिकारक तो नहीं ही है। 

एक मेरे मित्र, जिनके पास मतदाता-पहचानपत्र तो था किन्तु मतदातापत्र में उनका नाम मिल नहीं रहा था, आखिरकार ट्विटर-फेसबुक की मीठी धमकी के बाद नाम खोजने में उनकी मदद हुई और उन्होंने अपना मताधिकार प्रयोग किया; वे शाम को मुझसे चर्चा कर रहे थे। सहसा उन्होंने कहा-'एक तो वोट देने जाकर, नेताओं पर एहसान करो, उसपर से........!' यह स्पष्टतया दर्शित करता है कि अभी जनसामान्य अपने मताधिकार को लेकर संजीदा नहीं है और मत देकर दरअसल हम स्वयं का, समाज का और अंततः राष्ट्र के भले में अपना योग दे रहे होते हैं। मत का अधिकार इतनी आसानी से नहीं मिला है। एक समय था जब राजा और सिंह का अर्थ भय ही था। भाग्यवान इनसे दूर ही रहने की प्रार्थना करते थे। आज अपना भाग्यविधाता हम खुद चुनते हैं और सिंह को तो खैर अब हमारे सरंक्षण की आवश्यकता है। आधुनिक विश्व में १२१५ में ब्रिटेन में 'मैग्ना कार्टा लिबरटेटम' पर जब किंग जॉन सहमत होता है, तब पहली बार यह सन्देश फैला कि राजा, प्रजा के लिए है और उसकी सुरक्षा का दायित्व उसपर है। फिर धीरे धीरे जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी ईच्छा प्रकट करने लगी और राजकाज जनाधारित होने लगे। ब्रिटेन को आधुनिक संसद के प्रणेता होने का श्रेय मिला। संसद कहीं नए राजा की तरह निरंकुश न होने लगे, सो एक निश्चित अंतराल पर चुनाव होने लगे। अब यदि जनता इस मताधिकार का प्रयोग ही न करे तो वह बारम्बार एक ऐसी ऐतिहासिक गलती करेगी जिसकी भारपाई हो ही नहीं सकती। 



संसद के जनक देश ब्रिटेन में बहुत ना-नुकर के बाद महज उन महिलाओं को १९१८ में मताधिकार दिया गया जो तीस वर्ष की हों और गृहस्थ हों।१७७६ में आजाद हुआ गोरों का देश अमरीका अपनी महिलाओं को मताधिकार १९२० में ही दे सका। १७९० में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का उद्घोष करने वाला फ्रांस भी अपनी महिलाओं को मताधिकार देने लायक १९४५ में समझा। स्विट्जरलैंड तो अंतिम पंक्ति के उन देशों में है जिसने अपनी महिलाओं को मत का प्रयोग करने लायक १९७१ में समझा। हमारे महान देश भारत ने आजाद होते ही अपने संविधान में स्त्री-पुरुष सभी को समान मत का अधिकार दिया, चर्चिल ने जिसका मजाक उड़ाया; पर सफलतापूर्वक होते शांतिपूर्ण मतदानों ने सभी आशंकाओं को निर्मूल कर दिया। इसलिए मत का प्रयोग बहुत ही आवश्यक है। बिना मत दिए हमें कोई अधिकार नहीं बनता कि हम मौजूदा राजनीति अथवा भ्रष्ट नेताओं या देश की समस्याओं पर कोई भी टिप्पणी करें, क्योंकि अपनी भूमिका निभाये बिना हम कैसे कोई अपेक्षा रख सकते हैं। आखिर देश एक-दो से तो नहीं बनता। 

एक और बात जो बेहद महत्वपूर्ण है वह यह कि मुद्दे आयातित ना हों। हमारी जागरूकता का अभी आलम यह है कि अपने मोहल्ले की सड़क ख़राब है या नालियां बजबजा रही हैं, यह कोई नेताजी जब तक नहीं बताते, तब तक हमें एहसास ही नहीं होता। हमारे मुद्दे हमें चुनने होंगे। अपने आस-पास का विकास किस क्रम में होगा, यह हमें ही तय करना है। नेतागण उतने ही प्रखर व कर्तव्यशील होंगे जितने हम जागरूक होंगे। स्मरण रहे, राजनीति ठीक वैसे होती है, जैसे हम होते हैं। सही प्रश्न करने होंगे बार-बार। उनके जवाब पाने तक उन्हें बार-बार कुरेदने भी होंगे। जवाबदेही ऊपर से नीचे तक सभी की तय होगी, इस 'सभी' में 'हम' भी शामिल हों। इसप्रकार एक स्वस्थ, सशक्त लोकतंत्र विकसित होगा जिससे अन्तः एक महान राष्ट्र बनने का मार्ग प्रशस्त होगा।




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