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Sunday, December 31, 2017

सुनो बे दो हजार अट्ठारह



सुनो भई दो हजार अट्ठारह,


देखो, आराम से आना! लगे कि कुछ नया आ रहा है. फिर वही अखबार मत लाना जिसे ले जाएगा कबाड़ी वाला. लोग तो हैं ही सट्टेबाज, सत्ता की मलाई के लिए खांचा खीचने के लिए तैयार बैठे हैं. फेस्टिवल वाले देश में फेस्टिवल का धरम बताएंगे, किसी किसी दिन की जाति बतावेंगे और बंसी बजैइया के देश में बेशर्म इज्ज़त के नाम पे उसी पेड़ पे लटकावेंगे जहाँ उ चोर कपड़े लेके बैठे रहा!


सुनो, इस बार मुहल्ले में भी आना चमकदार टीवी से उतरकर. देखों यों आना कि नालियाँ साफ हो जाएं, अस्पताल में दवाई मिले और पाठशाला में मिलें गुरुजी. मौका लगे तो छह लाख गावों में शैम्पू की छोटी छोटी सैशे में समाकर आना, पर आना. पता करना कि किसी गांव में सचमुच बिजली रहती कितनी देर तक है. देखना, कि नहर में पूआल रखी है या पानी भी आता है. किसी से चुपके से पूछना कि पिछले चुनाव में जो मर्डर हुआ, उसमें कुछ हुआ या फिर सब विकास ही है.


अच्छा रुको रे दो हजार अट्ठारह! जरा विकास को पुचकार देना, बेचारा रूखा सूखा हुआ है. सब उसे हर सीजन में नए कपड़े पहनाकर घुमाते हैं सर पे, पर बेचारा दशकों से भूखा है. सड़क की पटरियों पे इधर उधर पोस्टर बैनर के नीचे कहीं कहीं कुछ बोतलों में चमकती अर्थव्यवस्था के आंकड़े चाटने से भला पेट भरता तो क्या बात थी. उसे बताना कि तुझे रोपेंगे किसी दिन रे विकास, अभी तो नारों से ही सेंसेक्स और रेटिंग में ज्वार आ जाता है.


लड़कियों के कान में चुपके से कह दो कि ये 21 वीं शती अब बालिग हुई. पढ़ें, लड़ें, कमाएँ, प्यार करें और जिएं! कितने ही जगह लड़कियों तुम्हारा अभी इन्तजार है, कितना ही अभी चमकना है! तुम्हारे पास सब कुछ पाने को ही तो है और लड़कों मेहनत करों, लड़कियाँ भी पुरजोर साथ देने को तैयार हैं.


नया भारत, सरकार के बनाने से नहीं बनेगा कभी, कह दो इस देश के गरम खून वाले बहुसंख्यक युवाओं से. नए साल जो तुम सचमुच नए हो तो नई सोच का तड़का लगा देना युवाओं में, ताकि वो सोच सहम जाएं जो विभाजन की फसल पैदा करती है.


यार, देश अपना अभी भी बहुतों से बहुत मायनों में पीछे है, कह दो हे नए साल हम सबसे कि हम सब मिलजुलकर इसे तरक्की के एक नए पैमाने पर ले जाएंगे!


नवल वर्ष की शुभकामनाएँ!




Saturday, December 30, 2017

2017 की विश्व राजनीति और भारत




अब जबकि पृथ्वी 2017 का अपना चक्कर पूरा ही करने वाली है, यह एक मुफीद समय है कि इस साल की विश्व-राजनीति को पीछे मुड़कर टटोला जाय, देखा जाय कि वे कौन सी घटनाएँ थीं, जिन्होंने खासा असर पैदा किया, ऐसी वे कौन सी गतिविधियाँ रहीं, जिनके जिक्र के बिना 2017 का कोई जिक्र अधूरा रहेगा और इन सबके बीच अपना भारत कैसे आगे बढ़ा ! यह एक मुश्किल काम इसलिए तो है ही कि विश्व राजनीति की बिसात बेहद लम्बी-चौड़ी है, पर असल चुनौती इसमें वैश्वीकरण की प्रक्रिया पैदा करती है। विश्व में वैश्वीकरण है, इसके अपने अच्छे-बुरे असर हैं; पर दरअसल विश्व-राजनीति का भी वैश्वीकरण हो चला है। इसका अर्थ यह है कि अब किसी भी महत्वपूर्ण वैश्विक घटना के स्थानीय निहितार्थ व प्रभाव हैं और किसी महत्वपूर्ण स्थानीय घटना के भी वैश्विक निहितार्थ व प्रभाव हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।संचार साधनों ने यह सुलभता तो दी है कि सभी घटनाएँ सभी स्तर पर लगभग तुरत ही उपलब्ध हैं, किन्तु इन्होने विश्व-राजनीति की जटिलताओं का और विस्तार ही किया है। इनकी अनदेखी करना सहसा विश्व-राजनीति के किसी घटना की व्याख्या में चूक जाना है।  विश्व-राजनीति के वैश्वीकरण का सबसे सीधा असर यों महसूस किया जा सकता है कि अब भले ही देशों के मध्य कूटनीतिक तनातनी हो, देश आपस के व्यापारिक संबंधों पर उसका असर न्यूनतम रखना चाहते हैं। अमेरिका और चीन के व्यापारिक  आंकड़ें इस सन्दर्भ में देखे जा सकते हैं। यहीं से इस आशा को भी बल मिलता है कि दुनिया में तनाव तो कई जगह बेहद गहरे हैं पर विश्वयुद्ध जैसी विभीषिका अथवा शीतयुद्ध जैसे तनाव की सम्भावना मद्धिम ही है। 

दुनिया के सबसे चमकदार महाद्वीप यूरोप का यूरोपीय यूनियन लगभग साल भर चर्चा में रहा। आर्थिक वजहों को अगर परे रखें तो ब्रिटेन का ईयू से छिटकना, जिसे विश्व मीडिया में ब्रेक्जिट कहा गया; लगातार चर्चा में रहा। 2016 में ही ब्रिटेन ने अपनी मंशा जतला दी थी पर इसे औपचारिक जामा मिला 2017 में । अभी भी ब्रेक्जिट की जटिल औपचारिक प्रक्रियाएँ चल रही हैं और इसी के सामानांतर यह विमर्श भी चलता रहा कि आज की वैश्वीकरण वाली विश्व-राजनीति में ईयू का एकीकृत मॉडल कितना सटीक है ! प्रसिद्द बार्सीलोना शहर वाले स्पेन का सबसे समृद्ध राज्य कैटेलोनिया, जिसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान स्पेनी राष्टीय पहचान से भी पुरानी है, इस साल एक नए राष्ट्र बनने के संघर्ष में जुटा रहा। कैटेलोनियन राष्ट्रीयता के साथ एक अलग संप्रभु राष्ट्र-राज्य बन जाने की राह बेहद कठिन है क्योंकि ईयू, अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस समेत सभी विकसित देशों ने इसका विरोध किया है। कैटेलोनिया विवाद दरअसल यूरोप में चल रहे दर्जन भर से अधिक नए राष्ट्र-राज्य आन्दोलनों की सबसे सशक्त बानगी है, जिसके मूल में पश्चिमी देशों की दोतरफा नीति की झलक तो है ही अपितु और गहरे में यह पश्चिमी राष्ट्रवाद की सीमा को भी उजागर कर देती है। पश्चिमी जगत लोकतान्त्रिक आत्म-निर्णयन के सिद्धांत का हवाला देता हुआ विकासशील देशों खासकर जिनका एक औपनिवेशिक अतीत भी है, के ऐसे ही आन्दोलनों के पक्ष में खड़ा हो जाता है। किंतु जब बात स्वयं पर आती है तो एक स्वर से सभी विकसित पश्चिमी राष्ट्र ऐसे आन्दोलनों को ‘खतरनाक चलन’ कह ख़ारिज करना चाहते हैं। सिद्धांततः पश्चिमी राष्ट्रवाद एकरूपता/समरूपता (homogeneity) की नींव पर निर्मित है जिसमें विविध पहचानों को किसी एक पहचान में विलीन होना होता है अथवा अलग राष्ट्र बन जाना होता है। इसके विपरीत भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना जो पश्चिमी राष्ट्रवाद के जवाब में आयी उसने विविधता को अंगीकार किया और अनेकता में एकता के दर्शन करते हुए विभिन्नता (heterogeneity) को अपना आधार बनाया। कैटेलोनिया विवाद जैसे वैश्विक घटना से भारत स्थानीय स्तर पर यह पाठ ले सकता है कि हमें अपनी राष्ट्रीयता को संजोना चाहिए जो हमारे देश की विशाल विविधता को आत्मसात करते हुए सततता में विश्वास रखती है। 

जुलाई में इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल को आखिरकार आई एस के चंगुल से छुड़ा लिया गया जिसे ठीक दो साल पहले अबू बक्र अल बगदादी के नेतृत्व में कब्ज़ा कर लिया गया था। इसके साथ ही पिछले तीन साल का क्रूरतम आतंकवादी खौफ व क्रूरता अंततः थमी, जिसने लोगों के मन में अल क़ायदा का नाम भुला ही दिया था।  अमेरिका और रूस दोनों ने ही आईएस के खिलाफ हुंकार भरी, पर यकीनन दोनों का उद्देश्य अपना अपना राष्ट्रहित रहा। रूस के लिए सीरियाई सरकार प्राथमिकता में है तो अमेरिका इराकी प्रतिबद्धता के अनुरूप कार्यरत रहा। मध्य-एशिया का सबसे गरीब देश यमन जो अदन की खाड़ी के किनारे-किनारे बसा है हूती (शिया) और सुन्नी की क्षेत्रीय लड़ाई में मोहरा बन गया। यमन में हालात तो पहले ही कुछ ठीक नहीं थे पर शियापरस्त ईरान और सुन्नीपरस्त सऊदी अरब ने यमन की घरेलू राजनीति की खींचातानी को अंततः एक बेहद अमानवीय गृहयुद्ध में तब्दील कर दिया। दिसंबर के इस हफ्ते में यमन को यों सुलगते लगभग हजार दिन हो जायेंगे और लगभग नौ हजार की नरबलि ले चूका यह संघर्ष विश्वशक्तियों के निर्णायक हस्तक्षेप की अभी भी बाँट जोह रहा है। मध्य-एशिया का सबसे पुराना और जटिल मुद्दा फ़िलहाल ठंडे बस्ते में था कि इसी दिसंबर माह के पहले हफ्ते में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपना एक चुनावी वादा पूरा करते हुए ऐलान किया कि अब वक्त आ गया है कि जेरुसलम को इजरायल की राजधानी घोषित किया जाय  और अमेरिकी दूतावास को जेरुसलम में प्रतिस्थापित किया जाय। ट्रम्प के इस बेवक्त के स्टंट ने मध्य एशियाई राजनीति के इस पुराने जिन्न को फिर से जगा दिया और मध्य एशियाई शक्तियाँ इस मुद्दे पर एकजुट हो इजरायल और अमेरिका का विरोध करने लगी हैं। इसमें सऊदी अरब की भूमिका सबसे अधिक उल्लेखनीय है। पहले से ही यह मुल्क अमेरिका सहयोग की नीति अपनाता रहा है और नए अतिमहत्वाकांक्षी राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व वाला सऊदी अरब एक सोची समझी अस्पष्टता बरत रहा है। ज़ाहिर है नए साल में भी मध्य एशिया सुर्ख़ियों में बना रहेगा भले ही सुलगता हुआ ही रहे। भारत ने बेहद सुन्दर संतुलन के साथ मध्य एशिया की अपनी विदेश नीति कुछ यों साधी है कि तेल की जरूरतें पूरी होती रहें और लपटें भी न लगें। 

वैश्विक स्तर पर जिन मामलों ने 2017 को परिभाषित किया उनमें इण्टरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस के जजों का चुनाव, पनामा पेपर्स और जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति रोबर्ट मुगाबे की विदाई खासा सनसनीखेज रही। यूएनओ ने सभी पारम्परिक शक्तियों ने ब्रिटेन को समर्थन दिया पर अंततः भारत के दलवीर भंडारी ने जीत दर्ज की। यह हेग विजय भारतीय कूटनीति के अथक प्रयासों का परिणाम थी। दलवीर भंडारी का जजों के पैनल में होना एक निर्णायक बिंदु था जहाँ भारत को कुलदीप जाधव मामले में सहायता मिली थी। जिम्बाब्वे में एक समय नायक की तरह राज करने वाले रोबर्ट मुगाबे ने सत्ता मोह में अपनी छवि के साथ ही समझौता कर लिया और अंततः जनविरोध के समक्ष घुटने टेककर उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक होना पड़ा। दुनिया के चौथे सबसे बड़े लॉ फर्म मोजैक फोंसेका के डेटाबेस से तकरीबन साढ़े ग्यारह मिलियन दस्तावेजों के लीक हो जाने से दुनिया भर के कच्चे-चिट्ठों की पोल खुली। लगभग हर देश में इसपर बवाल मचा पर सर्वाधिक असर पाकिस्तान की सिविल सोसायटी पर देखा गया जब अदालत ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मामले में उन्हें दोषी करार दिया। नवाज़ को गद्दी छोड़नी भी पड़ी. अपने देश भारत में भी पनामा पर चर्चा बहुत हुई और कई लोगों के नाम भी उछले पर अंततः यह सुर्खियां सूख गयीं। 

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चीन इस वर्ष भी पश्चिमी मीडिया के लिए ड्रैगन बना रहा और चीन लगभग वर्ष भर इसके कई वाजिब कारण भी मुहैया करवाता रहा। दुनिया अभी चीन के ओबोर नीति को समझ ही रही थी तब तक चीन के सर्वेसर्वा शी जिनपिंग ने अपनी पार्टी के अक्टूबर अधिवेशन में अपने तीन घंटे तेईस मिनट के लम्बे भाषण में चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को नए सिरे से रेखांकित कर दिया। यकीनन चीन आने वाले वर्षों में भी एक प्रमुख निर्णायक विश्व शक्ति बना रहेगा। अपनी आर्थिक व्यवस्था एक हद तक सुदृढ़ और स्थिर कर लेने के पश्चात् अब चीन विश्व की सर्वोच्च शक्ति बनने की होड़ में है। विवाद की दृष्टि से दक्षिण चीन सागर में  इस वर्ष हिलोर कम रही पर यह शांत कभी नहीं रहा। चीन ने विश्व के लगभग सभी सामरिक क्षेत्रों में भारी निवेश किया है और एशिया-हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अपनी भौतिक सम्बद्धता काफी मजबूत कर ली है। इधर रूस में पुतिन पिछले सत्रह सालों से एक निर्णायक पद पर बने हुए हैं और पुतिन का रूस अब अपनी ऐतिहासिक महत्वाकांक्षा के आगोश में है, जिसमें उसने चीन, सीरिया पाकिस्तान और उत्तर कोरिया का सामरिक समर्थन भी जुटा लिया है। उत्तर कोरिया लगातार प्रतिबंधों के बीच में भी धमकियाँ देता रहा और अपने हथियारों का परीक्षण करते हुए तनाव का माहौल बनाता रहा। यही कारण है कि ट्रम्प का अमेरिका सम्पूर्ण एशिया-हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को इंडो-पैसिफिक कह भारत की वैश्विक भागेदारी बढ़ाने की वकालत कर रहा है। नवम्बर के ईस्ट एशिया समिट में बाकायदा क्वाड (चतुष्क) देशों की चर्चा हुई जिसमें अमेरिका के साथ जापान, आस्ट्रेलिया और भारत शामिल है। हाल की अमेरिका द्वारा जारी की गयी अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा कार्ययोजना में भी भारत को एक प्रमुख विश्व शक्ति मानते हुए चतुष्क (क्वाड) की चर्चा की गयी। शिंजो अबे की पकड़ जापान में मजबूत हुई है और वे जापान को एक बार फिर सामरिक और सैन्य दृष्टिकोण से सक्रीय एवं मजबूत बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं। चीन में शी जिनपिंग घरेलू राजनीति में और मजबूत हुए हैं और वे भी चीन को विश्व शक्ति बनाने को आतुर हैं। ठीक यही रूस के पुतिन की स्थिति है। 2017 का एशिया एक शांत किन्तु गहरे तनाव में है। 

भारत के लिहाज से यह वर्ष उत्साहजनक रहा। वैश्विक हलकों में इसकी चर्चा लगातार होती रही। खाद्य सुरक्षा, कृषि, पर्यावरण के मुद्दों पर जहाँ इसे सभी विकासशील देशों का समर्थन मिला वहीं एनएसजी सदस्यता, सुरक्षा परिषद् सदस्यता के मोर्चे पर गतिरोध बना रहा। बाकी अन्य सभी विषयों पर अमेरिका लगातार और काफी खुलकर भारत के समर्थन में बयान जारी करता रहा।यों तो हर वर्ष ही भारत-चीन के सैनिकों में छिटपुट गतिरोध होते हैं, किन्तु इस वर्ष तिब्बत-भूटान के एक कोने से लगा डोकलम विवादों में रहा। तनातनी एक समय इतनी बढ़ी कि कुछ युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए किन्तु भारत इस बार रक्षात्मक नहीं रहा और अंततः चीन ने पैतरा बदल लिया। चीन के द्वारा जबरन उत्पन्न की गयी इस गतिरोध में आखिरकार उसे भी पता लगा कि भूटान के साथ-साथ दुनिया की बड़ी शक्तियाँ और खासकर अमेरिका भारत के साथ खड़े हैं। जैसे ट्रम्प भारत की वैश्विक भूमिका को निभाते हुए देखना चाहते हैं ठीक वैसे ही भारत ने अपने उत्तर-पूर्व के पड़ोसियों के साथ मेलजोल बढ़ाया है और भारत की एक्ट ईस्ट नीति में म्यांमार एक प्रमुख सहयोगी राष्ट्र के तौर पर उभरा है। किन्तु पड़ोस में वह म्यांमार ही है जहाँ से इस वर्ष विश्व की सर्वाधिक चर्चित त्रासदी रोहिंग्या शरणार्थी समस्या के तौर पर सामने आया । भारत ने इस पर एक सोची समझी कूटनीतिक अकर्मण्यता दिखाई, पड़ोसी देश बांग्लादेश थोड़ा नाराज भी रहा और अंततः यह विवाद थमा। भारत के सम्बन्ध अपने पड़ोसियों से इस वर्ष खिंचे ही रहे बस इसमें अफ़ग़ानिस्तान और भूटान अपवाद रहे। यों तो पाकिस्तान को छोड़कर कमोबेश सभी पड़ोसी देशों के छोटे-बड़े प्रतिनिधियों की भारत यात्रा समय-समय पर हुई किन्तु पारस्परिक संबंधों में वह अपेक्षित ऊष्मा नदारद रही। 

भारत को निश्चित ही श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और पाकिस्तान से अपने सम्बन्ध सुधारने की कोशिश करनी होगी क्यूंकि बड़ी तेजी से चीन इन पड़ोसियों में अपने भारी निवेश से एक गुडविल बनाता जा रहा है। नेपाल ने ऐतिहासिक रूप से नए संविधान के अनुरूप शांतिपूर्ण ढंग से एक साथ केंद्र और राज्य के चुनाव संपन्न करवा लिया और अंततः तीन दशकों के बाद उसे एक स्थिर सरकार मिली है। मालदीव ने हाल ही में चीन से मुक्त व्यापार समझौता संपन्न किया और श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह पर आख़िरकार चीन का निर्णायक स्वामित्व हो गया। चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर ग्वादर बंदरगाह भी विकसित किया और पाक-अधिकृत कश्मीर और चीन-अधिकृत अक्साई चिन पर पाकिस्तान-चीन के द्वारा पारस्परिक व्यापारिक गलियारा विकसित किया जिससे भारत का पारम्परिक ऊर्जा के भंडार मध्य एशिया के देशों के साथ भौतिक संपर्क ही अवरुद्ध हो गया। हालाँकि भारत ने अपनी तैयारियों में तेजी लाते हुए आखिरकार ईरान के साथ सहयोग करते हुए ग्वादर के निकट ही सिस्तान-बलूचिस्तान प्रान्त में उन्नत चाबहार बंदरगाह विकसित कर लिया और अब यह संचलन में भी आ गया है। चाबहार एक कूटनीतिक उपलब्धि भी है क्योंकि इससे भारत का न केवल मध्य एशिया के देशों के साथ पुनः भौतिक संपर्क स्थापित हो सकेगा अपितु भारत की सामरिक पहुँच ईरान-अफ़ग़ानिस्तान-रूस होते हुए यूरोप तक हो जाएगी। हिन्द महासागर में भारत अमेरिका के साथ डियागो गार्सिआ पर अपनी सामरिक पकड़ बनाये हुए है, हालाँकि इस वर्ष ब्रिटेन के अस्थाई स्वामित्व वाले इस मारीशस के द्वीप पर ब्रिटेन और मारीशस के बीच तनातनी भी रही। मामला यूएनओ में पहुंचा और भारत ने भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए मारीशस के पक्ष में मतदान किया। यहाँ कूटनीतिक चुनौतियाँ सचमुच आसान नहीं हैं। पीएम मोदी की विदेश यात्राओं में यूरोप के देश प्रमुखता से रहे, यथा-जर्मनी, स्पेन, रूस, फ़्रांस, पुर्तगाल और नीदरलैंड ! इसके अलावा 2017 में मोदी फिलीपींस, चीन, श्रीलंका, कजाखस्तान, अमेरिका और म्यांमार की यात्रा पर रहे। सर्वाधिक चर्चित यात्रा मोदी की इजरायल यात्रा रही क्यूंकि यह यात्रा एक कूटनीतिक बदलाव का द्योतक यात्रा रही। संयुक्त अरब अमीरात, बांग्लादेश, आस्ट्रेलिया, नेपाल, श्रीलंका, फलस्तीन, मारीशस, यमन, अफ़ग़ानिस्तान, भूटान के राष्टध्यक्षों ने भारत की इस वर्ष यात्रा की और जापान की शिंजो अबे की यात्रा इस वर्ष विशेष सुर्ख़ियों में रही। भारत ने इस वर्ष कई सम्मेलनों में भी हिस्सा लिया किन्तु सार्क और नैम के बैठक ठिठके ही रहे और यकीनन इसके कूटनीतिक निहितार्थ निकाले गए। 

नए वर्ष का विश्व जहाँ जेरुसलम और उत्तर कोरिया में उलझा रहेगा वहीं एक आशा ही है कि संभवतः अगले वर्ष दुनिया के शक्तिशाली देश ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से लड़ने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठा सकें। 2017 की एक खास बात यह भी रही कि अंततः वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में मांग और पूर्ति के प्रक्रियाओं में तेजी आयी और विश्व-व्यापार को पटरी पर आने में मदद मिली। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सुधार विश्व में एक आर्थिक आशावादिता जगाता है। नया वर्ष मोदी सरकार के इस कार्यकाल आख़िरी वर्ष होगा और सरकार अपने सभी वैश्विक और क्षेत्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने का प्रयास करेगी। पिछले सालों की सक्रियता से दुनिया को यह सन्देश तो अवश्य ही पहुंचा है कि भारत अपनी वैश्विक भूमिकाओं के लिए तैयार है।  भारत ने यकीनन वे क्षेत्र भी स्पर्श किये हैं जो एक अरसे अछूते रहे और खासकर अमेरिका के साथ संबंध यकीनन और बेहतर हुए हैं। विदेश नीति के सर्वाधिक विश्वसनीय सिद्धांत सततता व परिवर्तन के हिसाब से और राष्ट्र के दूरगामी हितों को देखते हुए भारत को ईरान, इजरायल, रूस और चीन के साथ अपने संबंधों को भी सम्हालते रहना होगा। कहना होगा कि भारत को अपनी वैश्विक भूमिका के साथ अपनी क्षेत्रीय भूमिका नज़रअंदाज नहीं करनी चाहिए। खासकर अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों को सुधारने की दिशा में एकतरफा ही सही पहल शुरू कर देनी चाहिए। नैम और सार्क को पुनर्जीवित करने का प्रयास भारत की बार्गेनिंग शक्ति को उभारेगा और इसे अपनी वैश्विक पहचान बनाने में मदद देगा। 


Friday, December 29, 2017

आपके सपने हैं, विश्वास सबसे पहले आपको करना है



ये उधेड़बुन बनी रहती है कि सपने संजोये जाएँ भी कि नहीं। कुछ कहते हैं कि अपनी सीमा समझते हुए जमीन पर पाँव जमाये रखना चाहिए। लक्ष्य रीयलिस्टिक होने चाहियें। जिंदगी के खूबसूरत एहसास से परे डरे सहमे लोगों की सख्त नसीहतें अधिक मिल जाएंगी। ये जिंदगी को बस एक रेस बना छोड़ देते हैं जिसके अंत में चाहे जीत हो या हार हो, इंसान हांफने ही लगता है।

इस दुनिया का सबसे उम्रदराज शख्स भी नहीं जानता कि अगले पल क्या होना है। इसलिए सपने संजोने का प्यारा जोखिम लिया जाना चाहिए। अगर आप चाहते हैं कि आपकी ज़िंदगी महज जेरोक्स बनकर न रह जाए, तो सपने संजोने चाहिए अपने। इसके फायदे अधिक हैं, नुकसान गिनती के हैं। सपनों वाला आदमी एक तरह के उत्साह में रहता है। पॉजिटिव मन के आदमी को ये दुनिया और भी प्यारी लगती है।

अपने सपनों का पीछा करते हुए धीरे धीरे हमारा व्यक्तित्व निखर जाता है और यह निखार कई बार उन सपनों से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इसलिए सपनों की यात्रा में गिरना-उठना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि चलते रहना।

घबराने की जरुरत नहीं है, हिम्मत से सपने संजोते हुए धीरे-धीरे लगातार सीखते हुए मुस्कुराते हुए यारियां निभाते हुए चलने की जरुरत है। आप लोगों में उत्साह भर सकते हैं। लोग घबराये हुए हैं, डरे हुए हैं; ऐसे में आपकी मुस्कान राहत तो देगी ही उन्हें, आपको एक बेहतर सामजिक सम्बल भी मिलेगा। सभी दौड़ में हैं तो इंतज़ार मत करिये कि कोई आपको पुचकरेगा, हौसला बढ़ाएगा या आपके सपनों की ईज्जत करेगा। सपने आपने देखे हैं, सबसे अधिक भरोसा आपको ही उनपर करना होगा।

Wednesday, December 27, 2017

कुलभूषण जाधव, अजमल कसाब नहीं हैं...


कभी भारतीय नेवी में काम कर चुका एक शख्स जो अपनी अधेड़ उम्र में ईरान जाकर कारोबार कर रहा था कि सहसा उसका अपहरण हो जाता है। पाकिस्तानी मीडिया हल्ला मचाती है कि उसने भारत के जासूस को पकड़ा है वह भी अपने प्रान्त बलूचिस्तान से। कहा जाता है कि वह रॉ का एक जासूस है, जो बलूचिस्तान में हुए कई बम विस्फोटों का जिम्मेदार है। पाकिस्तानी मार्शल कोर्ट उसे गुनहगार मानती है और फांसी की सजा सुनाती है। भारत सरकार हरकत में आती है और सजा के खिलाफ इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस, हेग में अपील करती है। पंद्रह सदस्यीय जजों का पैनल (जिसमें भारत के जस्टिस दलवीर भंडारी भी हैं ) उस शख्स की सजा पर रोक लगा देता है। भारत सरकर राहत की साँस लेती है और उनके परिवारजनों को उस शख्स से मिलवाने की कूटनीतिक जुगत लगाती है। यह मेहनत रंग लाती है और भारी इंटरनेशनल दबाव में पाकिस्तान, उस शख्स को उसकी माँ और पत्नी से मिलवाने के लिए राजी हो जाता है। पत्नी और माँ की सघन जांच होती है, महज सादे कपड़ों में उस शख्स से मीटिंग करवाई जाती है, बात आमने-सामने पर फोन से होती है, जिसे अधिकारी सुन रहे होते हैं और उनके बीच में एक मोटी पर पारदर्शी दीवार होती है। अगले दिन पाकिस्तान के सारे अख़बार देश की दरियादिली पर लहालोट होते हैं और उस शख्स की पत्नी के जूतों में सदिग्ध वस्तु होने की बात कहते हैं।
जी हाँ, उस शख्स का नाम है, कुलभूषण जाधव !
राजनीति में खासकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सच वह माना जाता है जो आपको और आपके देश को सूट करता है। तो सच क्या है, यह इस लेख का विषय नहीं है। कुछ बातें और कहीं जा सकती हैं, जिससे सीन और समझ में आ सकता है। देशों में सरकारें होती हैं, उन्हें फिर फिर चुनाव जीतकर सत्ता में आना होता है। चुनाव एक खर्चीली और कठिन प्रक्रिया है। राजनीतिक जनभागेदारी और राजनीतिबोध से शून्य समाज में सरकारें अमूमन भ्रष्ट होती हैं और वे ऐसे मुद्दे खोजती और बनाती हैं, जिसमें जनता का ध्यान जाए, जनता खुश हो और मूल समस्याएँ किनारे पडी रहें। भारत-पाकिस्तान की सरकारों में यह आम है, इसलिए जबतब ही किसी घटना पर भारत में ‘विदेशी हाथ’ और पाकिस्तान में ‘खुफ़िआ हाथ’ होने की बात की जाती है।
हमने अजमल कसाब को जब रंगे हाथों पकड़ा तो पाकिस्तान के लिए वह अंतरराष्ट्रीय शर्म से गुजरने जैसा था। हमने अजमल कसाब का गुनाह कुबूलता विडिओ चलाया और कसाब कहता सुना गया कि उसके साथ भारतीय अधिकारी बहुत अच्छे से पेश आये और भारतीय अख़बारों में उसके लिए बिरयानी के खर्चों की चर्चा हुई। कसाब ने उसी वीडियो में कुबूला कि गरीबी में उसने आतंक का रास्ता चुना और आईएसआई ने उसे ट्रेनिंग दी है। बाद में भारतीय कोर्ट ने उसी दोषी पाया और फांसी की सजा दे दी। चूँकि कसाब के लिए भारत के पास ढेरों सुबूत थे और कसाब भारतीय जमीन पर पकड़ा गया, इसलिए पाकिस्तान चाहकर भी इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस नहीं जा सकता था बल्कि पाकिस्तान ने तो आधिकारिक रूप से माना ही नहीं कि कसाब पाकिस्तानी नागरिक है. हालाँकि कसाब का पंजाबी पाकिस्तानी उच्चारण चीख चीखकर बयान कर रहा था कि यकीनन वह पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के फरीदकोट का है। कुलभूषण जाधव का भी एक विडिओ जारी किया गया है, जिसमें उसने कमोबेश इसी पैटर्न पर कुबूलनामा पेश किया है। पाकिस्तान में सियासत गरम है कि कुलभूषण को फांसी देके रहेंगे और भारत में राजनीति गरम है कि कुलभूषण के परिवार वालों के साथ बदसुलुकी हुई है और भारत चुप नहीं बैठेगा।
मुझे सच नहीं पता, निष्कर्ष आप निकालें !!!

Tuesday, December 26, 2017

दौलत, शोहरत या मेहनत, क्या है लाइफ की कुंजी ?

इस life में सबसे खूबसूरत और सबसे डरावना एक ही न बदलने वाला सच है और वह है: uncertainity ! हमें नहीं पता होता कि अगले ही moment पर क्या होने वाला है। कुछ भी हो सकता है सो उसकी तैयारी हम करते हैं। education लेते हैं, job ढूंढते हैं और अपने से बड़ों से अक्सर words of wisdom लेते हैं। पर जिंदगी कभी पूरी खुलती नहीं और past अगर repeat भी करता है तो इतने creative ढंग से repeat करता है कि उसे present में face करते वक्त words of wisdom अक्सर काम ही नहीं आते या बस थोड़ी सी मदद कर पाते हैं।
हमें क्या चाहिए life से हम तो यहीं confuse रहते हैं, क्योंकि हम देखते हैं कि जिन्हें हम अपनी life में admire करते हैं वे अलग-अलग लोग हैं और अलग-अलग चीजों ने उनके life में click किया है।1938 में Harvard ने एक बड़ा research project लिया, जिसे Adult Development Program  नाम दिया गया। दो groups के कुल 744 लोगों पर यह study की गयी। पहला group, Harvard से pass outs लोगों से बना और दूसरा Boston के poor suburbs के लोगों से बना। ऐसे research सचमुच survive नहीं करते पर luckily यह research आज भी चल रहा है और उन 744 में से अधिकांश जिन्दा हैं और अपने 90s में हैं। कई doctor बने, कई lawyers, कुछ ने MNCs में job ली, एक अमेरिका के president बने, कुछ alchohlic हो गए और कुछ Schizophrenic हो गए। बहुत ही धीरे-धीरे काफी minute detailing  के साथ इस research के लगभग 80 साल हुए। इस project के वर्तमान director, Robert Waldinger ने इस स्टडी के conclusions अपने एक TED Talk में share किया।
आश्चर्यजनक रूप से एक happy and healthy life के लिए wealth, Fame और hardwork से कहीं अधिक relationships की आवश्यकता है, ऐसा इस research का conclusion है। इस relationships में यह matter नहीं करता कि आप कितने लोगों से जुड़े हैं बल्कि relationship की quality important है। यह भी पाया गया कि अपने 90s में वही लोग happy, healthy और satisfied मिले जो relationships में deeply connected हैं। सबसे important conclusion यह है कि quality relationships न केवल physically benefit करते हैं बल्कि यह brain के लिए भी effective है। पाया गया कि quality relationships वालों की memory भी चुस्त मिली।
आह, life के जितने भी best lessons होते हैं वे इतने simple होते हैं, कि उनपर belief ही नहीं होता !!!

Monday, December 25, 2017

विश्व पटल पर उभरता भारत

डॉ. श्रीश पाठक*



भारत के मित्र समझे जाने वाले खूबसूरत देश मालदीव से अभी चीन ने मुक्त व्यापार संधि संपन्न की, पर फिर भी कहना होगा कि वैश्विक पटल पर और खासकर एशियाई क्षेत्र में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। दरअसल, चीन के बढ़ते प्रभावों के उत्तर में अमेरिका के पास भारत के अलावा कोई दूसरा ऐसा विकल्प नहीं है, जिसकी भू-राजनीतिक स्थिति कमाल की हो, बाजार के लिए अवसर प्रचुर हों और वैश्विक लोकतान्त्रिक साख भी विश्वसनीय हो।

अपने कार्यकाल के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यनीति में ट्रम्प सरकार ने जहाँ पाकिस्तान के लिए सख्त रवैया अपनाया वहीं एक ‘विश्वशक्ति’ के तौर पर भारत का ज़िक्र आठ बार किया और भारत के साथ सामरिक-आर्थिक हितों के और बेहतर विकास की वकालत की । हाल ही में हुए आठवें वैश्विक उद्यमिता शीर्ष सम्मलेन के आयोजन के लिए भी अमेरिका के स्टेट विभाग ने भारत को चुना, जो कि दक्षिण एशिया का पहला ऐसा आयोजन था। ट्रम्प की पुत्री इवांका, ट्रम्प परिवार की एक प्रभावशाली व्यक्तित्व मानी जाती हैं और अपने यहूदी पति जेरेड कुशनर की तरह ही जिनकी मंत्रणा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए उनके चुनाव अभियानों के समय से ही मायने रखती है। इस वैश्विक उद्यमिता शीर्ष सम्मलेन में इवांका की फैशन कूटनीति की भी चर्चा हुई।

वाशिंगटन की अपनी प्रेसवार्ता में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी हाल ही में हुई दक्षिण-पूर्व एशियाई यात्रा को 'जबर्दस्त सफल' करार दिया था । उन्होंने पत्रकारों से बिना कोई सवाल लिए एक लम्बा उद्बोधन दिया और कहा कि एक वैश्विक नेता के तौर पर अपनी भूमिका में अमेरिका वापस आ गया है और उनके प्रयासों ने  उन्मादी उत्तर कोरिया के खिलाफ विश्व को एकजुट कर दिया है। उत्तर कोरिया ने अभी अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण किया जिसमें उसका दावा है कि अब अमेरिका का पूरा भू-भाग उनके आक्रमण-क्षेत्र में आ गया है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने एक ट्वीट में इस पर चिंता जताते हुए अपनी सरकार और सेना के लिए और अधिक वित्त की आवश्यकता पर बल दिया। इसी दिन के एक ट्वीट में डोनाल्ड ट्रम्प ने इवांका की भारत यात्रा के उनकी सक्रियता की प्रशंसा भी की।   ट्रम्प की एशिया-प्रशांत यात्रा एक ऐसे क्षेत्र में हुई जहाँ तेजी से चीन की दखलंदाज़ी बढ़ी है और एक ऐसे समय में हुई जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के उन्नीसवें अधिवेशन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने तीन घंटे तेईस मिनट के लम्बे भाषण में चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पुनः दोहराया है।

माना जा रहा है कि इवांका की मंत्रणा से ही ट्रम्प की इस यात्रा में चीन का समावेशन अमेरिका के आर्थिक हितों के सुचारू संचलन के लिए किया गया था।  समझा जा सकता है कि इस यात्रा के अन्य पड़ावों के रूप में में बाकी देशों जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस और वियतनाम का चुनाव इसलिए किया गया क्योंकि वे सभी चीन के संतुलन में अलग-अलग दृष्टिकोण से अमेरिका के मजबूत स्तम्भ हैं। जापान जहाँ सामरिक और आर्थिक रूप से अमेरिकी कूटनीति में प्रतिभाग कर रहा, वहीं दक्षिण कोरिया दरअसल उत्तर कोरिया के संतुलन में है। वियतनाम और फिलीपींस की भू-राजनैतिक स्थिति दक्षिण-चीन सागर के लिहाज से अहम है और एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में एपेक और आसियान सहयोग के मद्देनज़र भी दोनों देश अमेरिकी हितों को आकर्षित करते हैं। चीन पर इस अमेरिकी घेराव को और धार मिल जाती है जब ट्रम्प द्वारा इस क्षेत्र को ही इंडो-पैसिफिक क्षेत्र कहा जाता है।  चर्चित जापान-भारत-अमेरिका-आस्ट्रेलिया चतुष्क (क्वाड) के साथ ही यहाँ बहरहाल पाकिस्तान-चीन-रूस-उत्तर कोरिया के प्रतिचतुष्क (एंटीक्वाड) को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।  

गौरतलब है कि अपने आप को पहला पैसिफिक प्रेसिडेंट कहने वाले अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति ओबामा ने अपनी महत्वाकांक्षी पिवट पॉलिसी का प्रतिपादन किया था जिसमें अमेरिकी संबंधों का झुकाव मध्य-पूर्व एशिया से हटाकर एशिया-पैसिफिक की तरफ करने की बात की गयी थी। अमेरिका की कोशिश थी कि देश की विदेश नीति में मध्य-पूर्व एशिया की जटिल राजनीति की भूमिका कम करके एशिया-पैसिफिक के व्यापारिक-वाणिज्यिक एवं सामरिक महत्त्व को प्रमुखता दी जाए। किन्तु ओबामा प्रशासन में इस ओर ठोस कदम नहीं उठाये जा सके। न ही अमेरिका की सक्रियता वहाँ कुछ कम की जा सकी और न ही एशिया-पैसिफिक में अमेरिकी इरादों को अमली जामा पहनाया जा सका। इससे अलग ट्रम्प मध्य-पूर्व एशिया में अमेरिकी सक्रियता कम किये जाने के पक्ष में तो नहीं हैं किन्तु एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में भी अमेरिकी प्रभाव बढ़ाने की फिराक में हैं। इसे कुछ विशेषज्ञ ट्रम्प की 'पोस्ट पिवट पॉलिसी' कह रहे हैं जिसमें ट्रम्प का दबाव इसपर ज्यादा है कि क्षेत्रीय संतुलन की जिम्मेदारी में सभी सहयोगी देशों को साझीदारी करनी होगी।

ट्रम्प व्यवसायी हैं और अमेरिका का चुनाव अमेरिकी हितों की प्राथमिकताओं को वरीयता देने के वादे से जीत कर आये हैं। क्षेत्र में चीन के साथ उनके देश की सर्वाधिक व्यापारिक हित जुड़े हैं, जिसे उन्होंने इस बार की यात्रा में भी महत्ता दी है ट्रम्प ने 'आर्थिक सुरक्षा ही राष्ट्रीय सुरक्षा है' का नारा देकर अपना मंतव्य भी स्पष्ट कर दिया।  इसके साथ ही हिंद महासागर से प्रशांत महासागर के व्यापारिक समुद्री मार्गों की मुक्तता एवं सुरक्षा के लिए वे भारत की महत्ता को रेखांकित करने से नहीं चुके हैं। उन्हें अमेरिका का दबदबा कम तो नहीं होने देना है किन्तु ट्रम्प चाहते हैं कि जिन देशों को अमेरिकी वैश्विक संलग्नता से फायदा है, वे इसे मिलकर वहन करें। आर्थिक दृष्टिकोण से हिन्द महासागर से लेकर प्रशांत महासागर के बीच की समुद्री मार्ग को ट्रम्प सुगम व व्यवधानरहित बनाना चाहते हैं।  चतुष्क के तीनों देशों ने दरअसल अमेरिकी इशारों के अनुरूप जवाब देना शुरू भी कर दिया है। डोकलाम विवाद में भारत ने जताया कि अब वह कूटनीतिक चुप्पी से कहीं अधिक की भूमिका में आने को तत्पर है और वहीं एक्ट ईस्ट पॉलिसी का इज़हार करते हुए दक्षिण-एशियाई क्षेत्र में भी भारत ने अपनी बढ़ती सक्रियता के सुबूत दिए हैं। ग़ौरतलब है कि भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी में म्यांमार एक मजबूत स्तम्भ है और हालिया रोहिंग्या विवाद में भारत ने म्यांमार के खिलाफ निष्क्रिय रहना ही उचित समझा। इस प्रकार भारत की एक्ट एशिया पॉलिसी ट्रम्प की पोस्ट पॉलिसी के साथ सुसंगति में है। जापान ने जहाँ द्वितीय युद्ध के बाद की अपनी पैसिफिस्ट पॉलिसी (शांतिप्रिय नीति) में बदलाव के संकेत दिए हैं वहीं आस्ट्रेलिया ने भी अपनी अमेरिकी संलग्नता दुहराई है। पोस्ट पिवट पॉलसी की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें अमेरिका की ओबामाकालीन 'बहुपक्षीय (मल्टीलैटरलिज़्म) 'संबंधों के स्थान पर 'द्विपक्षीय (बाईलैटरलिज़्म )'संबंधों को वरीयता दी जा रही है। ट्रम्प प्रत्येक सहयोगी देशों से एक कुशल व्यापारी की तरह अलग-अलग सुनिश्चित प्रतिबद्धता चाहते हैं।

एशिया की बदलती परिस्थितियों में भारत के लिए जैसी अनुकूल परिस्थिति निर्मित हुई है; इसका लाभ लेना एक अवसर तो है पर यह मौजूदा सरकार के लिए एक चुनौती भी है। भारत इसका लाभ कुछ यों ही सुनिश्चित कर सकता है, जब वह विश्व में और क्षेत्र में महत्वपूर्ण शक्तियों के राष्ट्रहित को समझते हुए स्वयं के राष्ट्रहित की गुंजायश खंगाल सके।  यह इतना सरल नहीं हैं, क्योंकि वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था में कोई एक स्वयंभू केंद्र नहीं है, यहाँ राष्ट्र-राज्यों को स्वयं ही अपने हित सुरक्षित रखने होते हैं ।ऐसे में तात्कालिक और दूरगामी दोनों ही सन्दर्भ में अधिकाधिक राष्ट्र-राज्यों से संबंधों की ऐसी बुनावट करनी होती है, जिससे अधिकतम राष्ट्रहित सधे ।अब यह आने वाला समय ही बताएगा कि मौजूदा सरकार इन परिस्थितियों का कितना लाभ देश को पहुंचाने में सफल हो सकी।  


*लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं.



Friday, December 22, 2017

यूरोप ने आज के अपने स्वैग के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, खून से अपने बर्फ बार बार रंगें हैं...!

एशिया के बाद दो भाग में देखें विश्व राजनीति में यूरोप !



चौबीस घंटे की एक क्लॉक से अगर अपनी पृथ्वी की अभी तक की जिंदगानी को दिखाने की कोशिश हो तो हम इंसानों  की औकात महज इतनी है कि 00:00 से शुरू हुई घड़ी में हम तकरीबन 11:58 पर अवतरित हुए। पर लगता यों है कि हिस्ट्री हमीं से है, इस जहान की । उसमें भी पिछले दो-तीन सौ साल से यूरोप का चैप्टर चल रहा और लगता यही है कि जैसे दुनिया का सारा ‘फर्स्ट’ यहीं से बिलोंग करता है। सत्ता जिसकी होती है, उसी का रहन-सहन होता है, उसी का भौकाल होता है, उसी की भाषा होती है और उसी की परिभाषा होती है। सुबूत ये है हुजूर कि, इवेन इस आर्टिकल में भी अगर अंगरेजी के वर्ड्स निकाल प्योर हिंदी के डाल दें, तो इसे बोझिल लगना चाहिए । इतिहास का पिता हेरोडोटस को मानना होता है जो यूरोप के एक देश ग्रीस का निवासी था। हम पढ़ते हैं कि अमेरिका की खोज कन्फ्यूज्ड क्रिस्टोफर कोलम्बस ने की जो इंडिया ढूंढते-ढूंढते कैरिबियाई द्वीपों से जा टकराया। अमेरिका पहले भी वहीं था, पर यूरोप के देश इटली के नाविक को पहली बार मिला तो अमेरिका की खोज हुई। यों ही आखिरकार भारत की भी खोज हुई, क्यूंकि पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा को ये देश पहली बार मिला। इंडिया का भौकाल समझिये, कि 20 मई 1498 को केरल के कप्पडु क्षेत्र में उतरने के करीब 8000 किमी दूर ही अफ्रीका के जिस द्वीप से कोलम्बस इंडिया को पहली बार देख पाया, खुशी में उस द्वीप का नाम ही केप ऑफ़ गुड होप रख दिया। सिक्का यूरोप का होगा तो टकसाल भी यूरोपियन होगी और करेंसी (चलन ) में वही होगा जो यूरोप का होगा।



कनाडा से महज दो प्रतिशत बड़ा है, पर महाद्वीप तगड़ा है यूरोप। दुनिया का दूसरा सबसे छोटा महाद्वीप यूरोप है पर इसमें दुनिया का सबसे बड़ा देश रूस है और दुनिया का सबसे छोटा देश वेटिकन सिटी भी है। आस्ट्रेलिया से थोड़े ही बड़े इस महाद्वीप में पचास देश हैं, बोली जाने वाली ढाई सौ से अधिक भाषाएँ हैं और एक सौ साठ से अधिक कल्चरल आइडेंटिटिज हैं। दुनिया में सबसे धनी है यूरोप और आज के ख्वाबों भरी ज़िंदगी की हकीकत है यूरोप। दुनिया के सर्वाधिक विकसित देश यहीं हैं और मान लीजिये कि यहाँ के गरीबों का कूड़ा अगर दुनिया के कुछ देशों में पहुंचा दिया जाय तो वे अपने देश के अमीरों में होंगे।दुनिया का हर भाग्यशाली बारहवां आदमी यूरोप में रहता है। क्रिस्टोफर मार्लोवी के शब्दों में - कि जैसे, इनफाइनाइट दौलत एक रूम में बंद हो। पेरिस यहीं, लन्दन यहीं, बर्लिन यहीं, रोम यहीं, यश चोपड़ा के शिफॉन साड़ियों वाला स्विट्जरलैंड यहीं, हॉलीवुड यहीं, डिज्नीलैंड यहीं और अपने अनुष्का वाले कैप्टन विराट ने भी यूरोप का वह देश चुना अपने शादी और हनीमून के लिए जहाँ से यूरोप के दूसरे सबसे पुराने एम्पायर, रोमन एम्पायर की शुरुआत हुई, यानी इटली।धरती के महज दो प्रतिशत धरातल वाले यूरोप में दुनिया में देशों के न्याय सुनाने वाला इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस, हेग भी यही हैं।  

दुनिया को साइंस का मॉडर्न लेसन देने वाले यूरोप के नाम की कहानी तक वेरी कन्फ्यूजिंग है। इसे ग्रीक मिथोलॉजी में यूरोपा नाम की राजकुमारी और ज्यूस की एक रानी के नाम से लिया गया। ग्रीक शब्द से चलें तो इसका मतलब वाइड, ब्रॉड माने विस्तृत होगा, पर सीरियन वार्ड एरेब से इसकी उत्पत्ति मानें तो इसका मतलब सनसेट होगा। शुरू में जब यह शब्द किसी प्लेस के लिए इस्तेमाल में आया तो इस यूरोप से मतलब उत्तरी अफ्रीका से था फिर धीरे धीरे यूरोप का आधुनिक अर्थ बना। अगर दुनिया भगवान ने बनाई तो यकीन करना मुश्किल है कि कभी यूरोप को इतना बुलंद करने की सोची हो उसने । क्योंकि सोचिये न, चारो तरफ से दुनिया के बाकी हिस्सों से कटा हुआ है यूरोप।  बर्फीला आर्कटिक इसे सर्द बनाये रखता है। विशाल अटलांटिक इसे पश्चिम के प्राकृतिक स्रोतों भरपूर अमेरिका महाद्वीप से वंचित रखता है तो मेडीटीरियन सी से यह मिनरल्स वाले अफ्रीका से कट जाता है। यूराल पहाड़ इसे पूरब के एशिया से अलग करके रखता है। जब यह ही न पता हो कि पृथ्वी गोल है या चपटी, और सूरज घूमता है कि पृथ्वी चक्क्र काटती है सूरज के, तो फिर ये सोचना कि एक दिन यूरोप के देश ऐसे शिप बनाएंगे कि वे पृथ्वी के एक-तिहाई लैंड से निकलकर दो-तिहाई वाटर को तैरते हुए  पृथ्वी के चक्कर पे चक्कर लगाएंगे; यह किसी किसी ऊँघती दुपहरी में देखे जाने वाले अटपटे बेतरतीब सपने से कहीं अधिक न था। पर, जनाब ! ये हुआ और इसलिए ही आज यूरोप ड्रीमलैंड है। सब बस अच्छा ही है, यूरोप में, ऐसा नहीं है, पर बाकी दुनिया के महाद्वीपों के मुकाबले यकीनन यूरोप की स्थिति यकीनन बेहतर है।

यूरोप ने आज के अपने स्वैग के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, खून से अपने बर्फ बार बार रंगें हैं। और एक ज़माने में से ही यूरोप में रहने वाली जातियों को बारबेरिक माना जाता रहा और आज भी यूरोप ने वह बारबेरिज्म खोया नहीं है बस मॉडर्न सिविलाईजेशन के अधखुले कपडे से इसे ढँक रखा है। उस कहानी को आइये फिर दुहराते हैं जो इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इकोनॉमिक-कल्चरल सिक्का अभी भी यूरोप का ही करेंसी में है। जीसस के करीब 1200 साल पहले फेमस ट्रॉय-स्पार्टा वार हुआ। जीसस के जनम के साढ़े आठ सौ साल पहले होमर हुआ जिसने आधुनिक दुनिया का पहला महाकाव्य इलियड और ओडिसी लिखा। फिर 776 बीसीई में ओलम्पिक खेल शुरू हुए और समझिये कि यूरोप की काशी रोम बसी ईसा से तकरीबन 750 साल पहले। ग्रीक एम्पायर पर पर्सिया ने आक्रमण किया ईसा के धरती पर आने के भी ठीक 500 साल पहले और यह लड़ाई अगले दो सौ और साल चलने वाली थी। बहरहाल, यूरोप महाद्वीप ने महान ग्रीक एम्पायर देखा और फिर महान रोमन एम्पायर देखा।

जीसस के इस दुनिया से विदा होने के बाद उनके कहे शांति संदेशों पर चर्च कुंडली मारकर बैठ गया और पॉलिटिक्स की कमान रिलिजन के सम्हालते ही यूरोप इतिहास के अपने मध्ययुग में आ पहुंचा। आज की पॉलिटिक्स अभी जितना क्रूर होने के लिए सोचेगी, रीलिजन ने वे हदें शताब्दियों पहले से ही तोड़नी शुरू कर दी थीं। ईसा मसीह की मृत्यु के 632 साल बाद एक नए रीलिजन इस्लाम के मसीहा मुहम्मद साहब की मृत्यु हुई और इस्लाम आज यूरोप का ही दूसरा प्रमुख रीलिजन नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का दूसरा बड़ा रिलिजन है। मध्य युग के यूरोप की कमान चर्च के पास थी। यूरोप से निकलकर चर्च ने रिलिजन के नाम पर क्रूसेड करने शुरू किये, जिसमें बेरहमी से काफिरों को मिटाया गया। तब तक मध्य एशिया से सिल्क रुट बनाता हुआ मंगोल शासक चंगिज खान बारबेरिज्म की दूसरा स्टैंडर्ड सेट करता हुआ आ पहुंचा और उसके बाद के शासकों ने सर्द यूरोप को और भी सर्द अपने हाथों से छु लिया। मध्य युग का यूरोप अंधयुग माने ब्लाइंड ऐज कहलाता है। ब्लाइंड इसलिए क्यूंकि चर्च का आदमी टिकटें बेचता स्वर्ग की और लोग टूट पड़ते खरीदने को। आज भी लोग चाँद और मंगल पर जमीन खरीद ही रहे इंटरनेट पर। उस ब्लाइंड ऐज में सारी कसौटियां चर्च सेट करता और ‘राइट’ वही माना जाता जो पोप को ‘राइट’ लगता। ठीक ऐसे ही जैसे आज मुस्लिम फ़ण्डामेंटलिस्ट को किसी सिरफिरे मौलवी की बात ‘राइट’ लगती है, किसी क्रिस्चियन फंडामेंटलिस्ट को दहशती प्रीस्ट की बात ‘राइट’ लगती है और किसी भटके हिन्दू नौजवान को किसी ढोंगी गुरु की ही बात ‘राइट’ लगती है। यों तो इस ब्लाइंड ऐज के बाद फिर रेनेसॉ और एनलाइटेन्मेंट एरा भी आया 17वीं शती तक, जिसमें एक बार फिर अंधश्रद्धा के स्थान पर रीजन और लॉजिक को महत्त्व दिया गया पर रीलीजन अभी भी इतना प्रभावशाली था कि उसने समूचे यूरोप को 1618 से 1648 तक के तीस साल के युद्धों में झोंक दिया।




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