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Thursday, December 13, 2018

भारत-पाकिस्तान का करतारपुर कनेक्शन



लोकतंत्र की विडंबना यह है कि सत्ता की निरंतरता की चाह दलों को अपनी सरकार बनाने और बचाने के लिए अंततः सबकुछ दाँव पर लगाने को उद्यत कर देती है और दल सत्ता के लिए ऐसा करने भी लग जाते हैं। दल, सत्ता के अपने पाँच सालों में लगभग हमेशा ही कुछ यों अपनी गतिविधियाँ रखते हैं कि उन्हें चुनाव में इसका फायदा अवश्य मिले। भारत-पाकिस्तान संबंध भी सीमा के दोनों ओर की सरकारों की इस मानसिकता से लगातार प्रभावित होता रहा है। पंजाब, जो कि सीमा के दोनों ओर फैला है और दोनों ही देशों का महत्वपूर्ण राज्य है, संबंधों की इस अनिश्चितता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला नागरिक-समुदाय है। खालिस्तान-संघर्ष का भयावह अध्याय इसमें सुरक्षा व आतंकवाद के महत्वपूर्ण तत्व भी जोड़ता है, जिससे सरकारें और भी एहतियात बरतती हैं और संबंधों में एकप्रकार की ठंडी जड़ता पसरी रहती है। इन ठिठके रिश्तों में सहसा एक हलचल हुई जब भारतीय पंजाब के राज्य सरकार के एक मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू अपने क्रिकेटर मित्र इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने पाकिस्तान पहुँचे और मंच पर पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले लग गए। यह तस्वीर और विडियो सीमा के दोनों ओर सनसनीखेज रही और दलों ने भी जमकर इसपर छींटाकशी की। गौरतलब है कि भारतीय पंजाब में अभी कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार है और केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार आरूढ़ है। भाजपा और कांग्रेस ने बयानों की रस्साकशी शुरू कर दी और नवजोत सिंह सिद्धू बेतहाशा ट्रोल किये जाने लगे। सिद्धू, चूँकि भाजपा के स्टार प्रचारक रह चुके हैं और हाल ही में उन्होंने कांग्रेस से खुद को जोड़ा है तो यों भी उनपर ट्रोलर्स मेहरबान थे। लेकिन जब सिद्धू ने यह कहा कि कमर बाजवा ने उनसे यह कहा कि आख़िरकार पाकिस्तानी सरकार करतारपुर गलियारा खोलने पर विचार कर रही है तो उनसे रहा नहीं गया और झूमकर उन्होंने बाजवा को गले लगा लिया तो इस बात ने सियासत को एक अलग ही मोड़ दे दिया। पंजाब के जो भाजपा नेता अभी सिद्धू की देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर नुकीली आलोचना कर रहे थे, उन्हें भी अपना स्वर संयत करना पड़ा क्योंकि मामला अब सिख धर्म से जुडी भावनाओं से जुड़ गया था। भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत केंद्र की मोदी सरकार भी सकते में थी क्योंकि इस आशय का कोई संचार फ़िलहाल पाकिस्तानी सरकार ने भारत की सरकार से नहीं किया था। 

विभाजन के समय कई बेहद महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल पाकिस्तान की सीमा में आ गए थे जिसमें गुरद्वारा जनम अस्थान ननकाना साहिब, पंचमुखी हनुमान मंदिर कराची, कटसराज मंदिर पंजाब, क्राइस्ट चर्च रावलपिंडी, सेंट कैथेडरल कराची, गुरद्वारा डेरा साहिब लाहौर, हिंगराज मंदिर बलूचिस्तान, सेक्रेड हार्ट कैथेडरल लाहौर, हसन अब्दाल स्थित गुरद्वारा पंजा साहिब और गुरद्वारा करतारपुर साहिब प्रमुख हैं। यों तो भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों में इतने हिलोर रहे हैं कि दोनों देशों के नागरिकों के लिए अपने-अपने धार्मिक स्थलों पर पहुँचना एक बेहद कठिन बात रही है लेकिन सितम्बर 14, 1974 को दोनों देशों ने ‘प्रोटोकॉल ऑन विजिट्स टू रिलीजियस श्राइन्स’ पर हस्ताक्षर किये जिसमें एक निश्चित वीजा व समय के लिए चिन्हित धार्मिक स्थलों पर जाया जा सकता है। हालाँकि, संबंधों के बनते-बिगड़ते आयामों के बीच इस सुविधा में भी नानुकर होती रही, पर यह भी सच है कि शांतिकाल में प्रतिवर्ष दोनों ही ओर से लाखों श्रद्धालु आवागमन करते हैं। गुरद्वारा करतार साहिब को पहला गुरद्वारा होने का गौरव प्राप्त है जहाँ गुरु नानकदेव ने अपनी लगभग 25 बरस की यात्रा (जिसमें उन्होंने श्रीलंका, तिब्बत, ईरान, बंगाल तक की खाक छानी) के बाद जीवन के आख़िरी 18 बरस एक किसान की तरह बिताया था। कहते हैं कि अपने समकालीन कबीर की तरह ही इनके प्रयाण पर भी हिन्दुओं और मुस्लिमों में विवाद हो गया था और कबीर की तरह ही गुरु नानक के पार्थिव शरीर के स्थान पर कुछ फूल मिले जिसे लेकर समाधि भी बनी और कब्र भी। गुरु नानकदेव ने कबीर की ही तरह सभी धर्मांधों की कटु आलोचना की और जीवनपर्यंत यह संदेश देते रहे कि सभी धर्म अपने शुद्धतम रूप में एक ही सच कहते हैं। यह करतारपुर ही था, जहाँ गुरु ने सभी भेदभावों को मिटाकर लंगर की प्रथा कायम की जो आज सिख धर्म की बेहद महत्वपूर्ण विशिष्टता है। इसलिए ही, करतारपुर साहिब, सिख धर्म के प्रत्येक अनुयायी के लिए एक बेहद धार्मिक स्थल है जहाँ जाने की हसरत सभी श्रद्धालुओं को होती है। भारतीय श्रद्धालु अपनी यह हसरत उन दूरबीनों  से देखकर भी पूरी करते हैं जो जिला गुरदासपुर में स्थित डेरा बाबा नानक गुरद्वारे पर दर्शन हेतु लगाई गयी है। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी लाहौर बस यात्रा में पहली बार करतारपुर साहिब गलियारे की चर्चा करते हैं और लगभग पिछले 25 वर्षों से सीमा के दोनों ओर से इस सन्दर्भ में प्रयास जारी थे। पाकिस्तान के नरोवाल जिले में स्थित करतारपुर साहिब गुरद्वारा और डेरा बाबा नानक गुरद्वारा में महज 4 किमी का फासला है पर रावी नदी यहीं बीच में भारत-पाकिस्तान की सीमा बनाती है। एक चुनाव रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने इसी सीमा पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कांग्रेस को सिख भावनाओं की कद्र होती तो करतारपुर साहिब भारतीय सीमा में होता। यह बेहद ही खतरनाक और हास्यास्पद बयान है यदि इतिहास के पन्नों को न भुलाया जाय। जाहिर है, मोदी सरकार को बिलकुल अंदेशा नहीं था कि पाकिस्तान की नयी इमरान सरकार यदि करतारपुर गलियारा खोलने को राजी होती भी है तो उसका संदेसा पहले सिद्धू को मिलेगा और धार्मिक भावनाओं के दबाव में मोदी सरकार इस अवसर को मना भी नहीं कर सकती थी। गौरतलब है कि 22 नवम्बर से गुरु नानकदेव का 550वां प्रकाशवर्ष भी प्रारम्भ हो गया है जिसकी तैयारी जोरशोर से चल रही और मोदी सरकार ने भी इसे  भव्यता से मनाने का निर्णय लिया है और भारत सरकार को अपनी ओर से भी करतारपुर गलियारा के शिलान्यास का निर्णय लेना पड़ा। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा का पशोपेश में होना सुषमा स्वराज के उस बयान से बखूबी झलकता है जहाँ वह कहती हैं कि करतारपुर गलियारा खोलने पर पाकिस्तान सरकार की सहमति आने का अर्थ यह नहीं है कि भारत, पाकिस्तान से शांति वार्त्ताओं के लिए तैयार हो जायेगा। यकीनन, आज जो नवजोत सिंह सिद्धू भाजपा में होते तो भारत सरकार इसे पाकिस्तान के साथ ट्रैक-2, ट्रैक-3 नीति की शांति प्रयासों से जोड़ती और चुनावों में बड़ी सकारात्मकता से उतरती। भाजपा से कांग्रेस में गए नवजोत सिंह सिद्धू के हाथ इस इक्के के लग जाने से अब कांग्रेस में उनकी स्थिति मजबूत तो हुई ही है, पंजाब में भी उनके लिए एक गुडविल बनी है। 

भारत की तरफ से करतारपुर गलियारे का शिलान्यास करते हुए नितिन गडकरी ने इसे चार-पाँच महीने में ही पूरा कर लेने का दावा किया, जिससे बिना वीजा के श्रद्धालुओं की आवाजाही हो सके। इसी मंच से बोलते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन अटकलों का जवाब दिया जिनमें गलियारे की आतंकवादियों द्वारा सुरक्षा संबंधी दुष्प्रयोग का अंदेशा जतलाया गया है। उन्होंने पाकिस्तानी जनरल कमर बाजवा को कड़ी चेतावनी दी और कहा कि पंजाबी लड़ना जानते हैं। सुरक्षा एजेंसियों की यह चिंता वैसे जायज है कि इस गलियारे का दुष्प्रयोग संभव है। यह चिंता तब और बढ़ जाती है जब इसे खोलने की सूचना सीधे पाकिस्तानी जनरल कमर बाजवा की ओर से सबसे पहले आती है वह भी पाकिस्तान के नयी सरकार के शपथ ग्रहण के अवसर पर, तो निश्चित ही यह इमरान सरकार का फैसला नहीं लगता। पाकिस्तान में यों भी विदेशी मामलों में सरकार से अधिक सेना की चलती है और इमरान सरकार सेनापरस्त सरकार मानी भी जाती है। ऐसे में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की एक चिंता यह भी है कि यह पाकिस्तानी सेना का एक गेमप्लान भी हो सकता है। एक वीजाफ्री गलियारा दोनों ओर के खालिस्तानी अतिवादियों को भी मौका देगा और यह देशव्यापी आतंकवाद का भी एक जरिया बन सकता है। दो देशों के बीच जब तनावपूर्ण संबंध होते हैं और संयोग से वे एक-दूसरे के पड़ोसी होते हैं तो न शांति के प्रयास थामे जाते हैं और न ही सुरक्षा व ख़ुफ़िया तैयारियों में कोई ढील दी जाती है, इसलिए इस आशंका के समानांतर किसी भी प्रकार के शांति प्रयासों को रोका नहीं जा सकता और सरकार दूसरी ओर इस गलियारे के लिए अपनी सुरक्षा तैयारियों पर भी गंभीरता से काम अवश्य करे।

करतारपुर साहिब गलियारा, भारत-पाकिस्तान संबंधों में एक नयी ऊर्जा फूंक सकता है जो सीमा की दोनों ओर की सरकारें गंभीर हों। पाकिस्तान में नयी सरकार आ चुकी है और भारत में नयी सरकार आने को है। पाकिस्तान के साथ भारत की एक कशमकश यह रहा करती थी कि वार्ता किससे की जाय पर अभी इमरान खान ने गलियारे का अपनी तरफ से शिलान्यास करते हुए ठीक ही कहा कि सरकार, सेना और नागरिक समाज सारे ही इस मुद्दे पर एक पेज पर हैं। इमरान खान का एक पर्सनल कनेक्ट भी सिख धर्म से है। इमरान खान जबसे महान बाबा फरीद के अनुयायियों के संपर्क में आये हैं, खासे आध्यात्मिक हुए हैं और इन बाबा फरीद के महत्वपूर्ण उद्धरण नानकदेव के गुरुग्रंथ साहिब में ही पहली बार मिलते हैं। बचपन से इमरान खान जिस मेला मियांमीर में शिरकत करते रहे हैं और उनकी माँ की कब्र जिस मियांमीर की कब्र के पास है उन्हीं मियांमीर ने गुरु अर्जनदेव के आग्रह पर अमृतसर स्थित हरमिंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की नींव रखी थी। गुरु नानकदेव ने अपने जीवन के तमाम वर्ष कई देशों की सीमायें लांघते हुए शांति का पाठ पढ़ाने में व्यतीत किया, उनके 550वें  प्रकाशवर्ष के अवसर पर भारत-पाकिस्तान शांति का एक नया सोपान प्रारम्भ कर सकते हैं। यह गलियारा पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को धार्मिक पर्यटन के रूप में लाभ पहुँचायेगा। क्षेत्र में रूस की मंशा अमेरिकी प्रभाव को सीमित करते हुए यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत और चीन अपने पारस्परिक विवाद निपटाते हुए ईरान से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, चीन होते हुए रूस तक एक सशक्त ऊर्जा गलियारा बनायें जिससे क्षेत्र में अमेरिका पर निर्भरता कम हो। गौरतलब है कि ईरान, पाकिस्तान और चीन से रूस से रिश्ते अच्छे हैं और रूस, भारत से भी अपने रिश्तों में जान फूंककर अफगानिस्तान, ईरान के जरिये मध्य-पूर्व एशिया में अपनी उपस्थिति पुख्ता करना चाहता है। भारत, संबंधों के इस वितान पर होने वाले सुखद संभावनाओं की अनदेखी नहीं ही कर सकता तो करतारपुर गलियारा एक महत्वपूर्ण प्रारंभन बिंदु हो सकता है। सिख डायस्पोरा की ताकत भी कनाडा, यूके, यूरोप सहित समूचे विश्वभर में है तो यह गलियारा इस सिख़-विस्तार को भी आकर्षित करेगा और अंततः भारतीय कूटनीति को लाभ भी पहुँचायेगा।   


Thursday, November 22, 2018

राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर मालदीव

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में मोहम्मद सोलिह के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के साथ ही मालदीव इस दशक के अपने सबसे बड़े राजनीतिक संकट के पूर्णकोणीय पटाक्षेप पर पहुंच गया. लोकतांत्रिक संविधान के अनुरूप चुने गये पहले राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद द्वारा शपथ लेने के तीन साल के भीतर ही, वर्ष 2012 में, त्यागपत्र देने से शुरू हुए राजनीतिक संकट ने महज सवा लाख आबादी वाले इस खूबसूरत द्वीपीय देश को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में डाल दिया था. मोहम्मद नशीद ने राष्ट्रपति रहते हुए देश की पर्यटन नीति में बदलाव किये थे.

इनसे मौमून अब्दुल गयूम और उनके भाई अब्दुल्ला यामीन के आर्थिक हितों को ठेस लगी थी. नवम्बर, 2013 में गयूम के प्रयासों से यामीन ने राष्ट्रपति की कुर्सी अपने नाम की. तबसे यामीन और नशीद के बीच राजनीतिक संघर्ष जारी था. उस समय हिंदमहासागर में चीन स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति के तहत बड़े कदम उठा रहा था.


तब, गयूम के बाद नशीद भी चीन के सामरिक व आर्थिक आकर्षण में आने को उद्यत थे. वर्ष 2011 हुए सत्रहवें दक्षेस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मालदीव में आने के एक दिन पूर्व चीनी दूतावास का उद्घाटन करने गये मोहम्मद नशीद की चीन से नजदीकी भारत को रास नहीं आयी थी.

बदलते वैश्विक परिदृश्य में चीन अपनी ओबोर नीति से अमेरिका को चुनौती पेश करने लगा, वहीं अमेरिका ने भी हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र के संयुक्त सामरिक महत्व को देखते हुए जापान, आस्ट्रेलिया व भारत के साथ एक चतुष्क (क्वाड) की सामरिक योजना रची.

महज 297 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले देश मालदीव के राजनीतिक संकट में अब भारत-चीन और अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के आयाम शामिल हो गये, जिसने समूचे हिंद महासागर क्षेत्र की राजनीतिक स्थिरता में हिलोेर भर दिया. पारंपरिक रूप से भारत की भूमिका, मालदीव में निर्णायक रही थी, किंतु यामीन के सत्ता में आने पर चीन को वरीयता मिलती गयी.

इसी तनातनी में, नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में अपना मालदीव दौरा रद्द कर दिया था. अगस्त, 2017 में तीन बड़े चीनी जहाजी बेड़े ने माले में अपना डेरा लगाया था. उसी साल दिसंबर में मालदीव ने चीन के साथ ‘मुक्त व्यापार संधि’ भी की. मालदीव के कुल राष्ट्रीय ऋण में तकरीबन 70 प्रतिशत हिस्सा अकेले चीन का था. यामीन का मालदीव चीन के इशारों पर काम कर रहा था और भारत इस देश की प्राथमिकताओं से अनुपस्थित था.

मालदीव के लिए यह दशक चरमपंथी इस्लाम के उभार का भी रहा. चीन की कठपुतली बने यामीन अपने एकतांत्रिक निर्णयों से मालदीव की लोकतांत्रिक अस्मिता को तार-तार किये जा रहे थे.

निवर्तमान राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद राजनीतिक बंदी बना दिये गये थे और अंततः देश से निर्वासित थे. इस बीच यामीन की अपने भाई गयूम से इस कदर ठन गयी कि गयूम ने नशीद से हाथ मिला लिया. गयूम भी आखिरकार जेल भेज दिये गये.

सुप्रीम कोर्ट ने जब इस साल फरवरी में मोहम्मद नशीद सहित नौ राजनीतिक बंदियों को रिहा करने और 12 सांसदों की सदस्यता बहाल करने का निर्देश दिया तो अल्पमत और महाभियोग के खतरे को भांपते हुए अब्दुल्ला यामीन ने देश में आपातकाल लागू कर दिया और सितंबर में राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा कर दी. उस वक्त नशीद ने भारत और अमेरिका से आवश्यक हस्तक्षेप कर मालदीव में लोकतंत्र बचाने की गुहार की थी. चीन ने तब इसे आंतरिक संकट कहकर टिप्पणी की थी.

सेना और पुलिस यामीन के इशारे पर काम कर रही थी, वहीं चुनाव आयोग, न्यायपालिका और नागरिक समाज लोकतांत्रिक पथ पर प्रशस्त हो चुनौतियों का सामना कर रहे थे.

मालदीव की आम जनता ने इस संघर्ष को मुकम्मल बनाया, जब माह सितंबंर में रिकॉर्ड 89.2 प्रतिशत मतदान कर नशीद, गयूम और अन्य दलों के इब्राहिम सोलिह के गठबंधन को जीत प्रदान की और अब्दुल्ला यामीन को हरा दिया.

हालांकि, यामीन ने चुनावी परिणामों पर प्रश्न उठाया, लेकिन अमेरिका की कड़ी चेतावनी के बाद सबकुछ सामान्य हो गया. नयी सरकार ने आते ही चीन के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते सहित अन्य आर्थिक समझौतों के पुनरीक्षण की घोषणा कर दी है. अंततः मालदीव में, भारत को चीन पर एक निर्णायक बढ़त मिल गयी है.

भूटान, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव के हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से, दक्षिण एशिया में चीन व भारत की रस्साकसी स्पष्ट दिखती है, जिसके क्षेत्रीय, महासागरीय व वैश्विक संदर्भ हैं.

फिलहाल, मालदीव की नयी सरकार के समक्ष कई चुनौतियां हैं- देश की आर्थिक स्थिति सुधारना, इस्लामी चरमपंथ से निपटना, चीन से समझौतों में संतुलन लाना और गठबंधन सरकार में अंतर्निहित वैचारिक भेदों के बीच मध्यम मार्ग निकालना. अब्दुल गयूम, मोहम्मद नशीद और गठबंधन के अन्य दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति सोलिह को एक संगति बिठानी होगी, जो आसान नहीं होगा. लेकिन, मालदीव में अगले वर्ष होने वाले संसदीय चुनावों में नागरिक-समाज की प्रतिबद्धता को देखते हुए यह शुभाशा की जा सकती है कि यह खूबसूरत द्वीप स्वाभाविक राजनीतिक स्थिरता प्राप्त करने में सफल होगा.

Thursday, October 18, 2018

भूटान में लोकतंत्र का नया संस्करण

साभार: अमर उजाला

भारत, नेपाल और चीन की भौगोलिक विन्यासों में स्थलबद्ध भूटान आज (18.10.18) अपने शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक सत्ता-हस्तांतरण के तीसरे संस्करण की भूमिका लिखने वाला है। भूटान के संविधान के अनुसार आम चुनाव दो चरणों में होते हैं। पहले चरण में मतदाता विभिन्न दलों में से अपने पसंद के दल चुनते हैं। सर्वाधिक पसंद किये गए केवल दो दलों के उम्मीदवारों को ही दूसरे चरण में भूटान के 20 जिलों से उम्मीदवारी का मौका मिलता है। राष्ट्रीय सभा (चोगदू) के निम्न सदन के 47 सीटों में से अधिकांश पर विजयी दल के नेता को भूटान के राजा द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। इस बार के पहले चरण में विगत 15 सितंबर को हुए चुनाव में भूटान की जनता ने सभी को चौंकाते हुए भारत के प्रति उदार रुख बरतने वाली सत्तारूढ़ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को तीसरे स्थान पर खिसकाते हुए अगले चरण से ही बाहर कर दिया और छह साल पुराने अपेक्षाकृत नये दल ड्रूक न्यामरूप चोगपा (डीएनटी) को पहले स्थान पर और 2008 के पहले आम चुनाव को जीतने वाले ड्रूक फियंजम चोगपा (डीपीटी) को दूसरे स्थान पर अपना पसंदीदा दल करार दिया। दूसरे चरण में मुकाबला डीएनटी और डीपीटी दलों में होना है। डीपीटी दल से देश के पहले प्रधानमंत्री रहे जिग्मे थिनले को जून 2012 में रियोडीजेनेरियो में चीनी प्रीमियर वेन जियाबाओ से की गयी मुलाकात के बाद से कूटनीतिक हलकों में उन्हें चीन के प्रति उदार रुख बरतने वाला समझा गया। जिसके बाद एक महीने के लिए भारत से भूटान को दी जा रही गैस सब्सिडी तकनीकी कारणों से अवरुद्ध हो गयी थी। देश के दूसरे आम चुनाव 2013 में विपक्षी दल पीडीपी ने अन्य प्रासंगिक मुद्दों के साथ-साथ सत्तारूढ़ डीपीटी की नीतियों से भारत-भूटान पारंपरिक सुघड़ संबंधों में आ सकने वाली खटास को मुद्दा बनाते हुए तब चुनाव जीत लिया था। 


आमतौर पर शांत रहने वाले इस प्राकृतिक सुरम्य देश भूटान के लिए पिछले पाँच साल काफी घटनापूर्ण रहे। अपने पूर्ववर्ती जिग्मे थिनले की वैश्विक विदेश नीति से अलग पीडीपी दल से नियुक्त प्रधानमंत्री चेरिंग चोबगाय ने क्षेत्रीय संबंधों और खासकर भारत से अपने संबंधों को प्राथमिकता दी। देश की अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत सुधार हुआ और भूटान ने संबंधों में एक नैरंतर्य बनाये रखा। लेकिन चोबगाय ने स्वीकार किया था कि उनके देश को प्रसिद्ध ‘ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस’ के चश्मे से देखना त्रुटिपूर्ण होगा, बेरोजगारी, बढ़ता ऋण, भ्रष्टाचार और गरीबी भूटान के बड़े मुद्दे हैं और इनकी अनदेखी कोई सरकार नहीं कर सकती। चोबगाय कार्यकाल में ही चीन ने भूटान से की गयी अपनी सीमा सहमति का उल्लंघन करते हुए दोकलाम क्षेत्र जो कि भारतीय सामरिक दृष्टिकोण से बेहद अहम है, पर अवैध निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया, जिससे भूटान-चीन-भारत के मध्य तकरीबन सत्तर दिनों तक तनातनी बनी रही। भारत के लिए बेहतरीन बात इसमें यह रही कि भूटान ने एक स्पष्ट रुख लिया और कहता रहा कि उल्लंघन चीन की ओर से हुआ। नेपाली मूल के भूटानी लहोतशम्पाओं का निर्वासन भी एक तनाव का मुद्दा है, जिससे भूटान को नेपाल के साथ मिलकर सुलझाना होगा अन्यथा यह मुद्दा गंभीर सुरक्षा का सबब बन सकता है। 

आज के चुनावों पर भारत चीन और नेपाल की भी दृष्टि है कि आखिर भूटान की जनता एक नए दल डीएनटी को चुनती है अथवा देश को पहला प्रधानमंत्री देने वाले दल डीपीटी को फिर एक बार यह मौका देती है। वैसे यह भी एक तथ्य है कि इसबार के चुनाव माहौल में 2013 की भाँति भारत कोई विशेष मुद्दा नहीं बना। प्रथम चरण में शामिल चारो दलों के चुनावी घोषणापत्रों में बल्कि भारत की चीन के मुकाबले अहमियत स्पष्ट दिखी। परंपरागत रूप से भूटान की वैदेशिक नीति पहले ब्रिटिश भारत और फिर 2007 के पहले तक स्वतंत्र भारत ही तय करता रहा है। नवीन लोकतांत्रिक भूटान, अपनी संप्रभुता के एक महत्वपूर्ण आयाम के रूप में स्वतंत्र विदेश नीति के लिए निश्चित ही प्रयास करेगा जिसमें भारत से उसके संबंध प्रगाढ़ बने रहें और चीन सहित अन्य शक्तियों से भी एक संतुलन सधा रहे। निवेश की आकांक्षा से अपने उत्तर-पूर्व पड़ोसी चीन के प्रति आकर्षण से भूटान इसलिए भी स्वयं को बचाता है क्योंकि भारत के उसके संबंध बेहद विश्वासपूर्ण रहे हैं तथा दोकलाम के बाद तो चीन की साख इन अर्थों में संदिग्ध ही रही है। इसलिए ही इतना तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि भूटान में चाहे डीएनटी अथवा डीपीटी की सरकार बने, भारत से भूटान के संबंध सकारात्मक रूप से प्रगाढ़ ही होंगे।    


Sunday, October 7, 2018

आवाज़ में दिखते थे हज़ारों नज़ारे

साभार: अहा ज़िंदगी, भास्कर 


“आपने तो उस दिन हमारे दिलों की धड़कनें 
बार-बार ऊपर-नीचे कीं।”

1975 में संसद की कार्यवाही रुकवाकर भारत-पाकिस्तान हॉकी फाइनल मैच देखने वालीं प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मशहूर उद्घोषक जसदेव सिंह जी से अपनी मुलाकात में ये उपरोक्त कथन कहे थे। जसदेव सिंह जी की गहरी आवाज के हर उतार-चढाव पर हर हिन्दुस्तानी के दिल की धड़कनें अपनी लय फिर पाने के लिए बेताब हो जाती थीं। बीते 25 सितम्बर 2018 से अब इस आवाज की बस यादें महकेंगी जो कुछ यों शुरू होती थीं:

“मै जसदेव सिंह बोल रहा हूँ !”

वो दौर था जब रेडियो ही वह जादुई पिटारा था जिसे कभी भी बुद्धू बक्सा नहीं कहा गया और जो अपनी आवाज के जरिये हर आमोखास के कानों में मनोरंजन का गूँज भर देता था। कान सुनते थे, आँखें देखने लग जाती थीं, मन कुलाँचे लेने लगता था और ज़ेहन में हर एक लफ्ज रुई के फाहों के मानिंद उतरते चले जाते और फिर एहसासों के मखमली तसव्वुर जब-तब उभर हर दिल को गुदगुदाते रहते। रेडियो के कद्रदान और खेलप्रेमी ये जानते हैं कि ऐसा तब जरूर होता जब अल्फ़ाज़ जसदेव सिंह के हों। हॉकी का खेल एक तेज खेल है। इसकी कमेंट्री करने के लिए आवाज में वही जोश, वही फुर्ती होनी चाहिए जो एक उम्दा हॉकी खिलाड़ी में होती है। यह एक मुमकिन बात न मानी जाती जो हमारे देश में जसदेव सिंह जैसा शुद्ध, स्पष्ट उच्चारण वाला और हिंदुस्तानी जुबान का कमेंटेटर न पैदा होता। 

18 मई, 1931 को बौंली, राजस्थान में जन्में जसदेव सिंह की शिक्षा पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी में हुई पर महात्मा गाँधी की अंतिम यात्रा के दिन जब रेडियो पर उन्होंने मशहूर अंग्रेजी प्रस्तोता मेलविल डी मेलो की आवाज सुनी, तो ठान लिया कि वे हिंदी में ही कमेंट्री करेंगे। धुन के पक्के बीए-एलएलबी जसदेव सिंह का सफर 1955 में आकाशवाणी जयपुर से शुरू हुआ। जसदेव सिंह जी को रेडियो और दूरदर्शन पर बोलने की हर प्रचलित विधा का अनुभव था। समाचार वाचक, खेल उद्घोषक, संचालन, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय अवसरों के प्रस्तोता, जवाहर लाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, संजय गाँधी, इंदिरा गाँधी के अंतिम यात्रा के वर्णनकार की भूमिका के साथ ही जसदेव सिंह जी ने देश के पहले अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा की यात्रा का अप्रतिम रोमांच भी देशवासियों से साझा किया। पाकिस्तान में भी आपकी लोकप्रियता का आलम यह था कि टेलीविजन पर भले ही खेल देखा जाता लेकिन आँखों देखा हाल सुनने के लिए ऑल इंडिया रेडियो ही ट्यून किया जाता। आपको गुरु नानक देव के जन्मोत्सव कार्यक्रम के वर्णन के लिए पाकिस्तान के ननकाना साहब में भी आमंत्रित किया गया। पद्म श्री एवं पद्म भूषण से सम्मानित कमेंटेटर जसदेव सिंह की आवाज और हॉकी का खेल एक ज़माने में एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे। हॉकी के अलावा उन्होंने क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस के कई मशहूर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी कमेंट्री करके अपने आवाज का लोहा मनवाया। आपको नौ ओलंपिक आयोजन, आठ हॉकी विश्व कप एवं छह एशियाड गेम्स में बतौर कमेंटेटर काम करने का गौरव प्राप्त है। लोग उनके आवाज के यों दीवाने थे जैसे वे उम्दा खिलाडियों के कौशल के दीवाने होते थे। 1988 सियोल ओलंपिक में उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार ‘द ओलंपिक ऑर्डर’ से नवाजा गया। रेडियो की दुनिया की सबसे मशहूर तिकड़ी, देवकीनंदन पांडेय, अमीन सयानी, जसदेव सिंह से ही बनती है और बनती रहेगी। 

उनके आवाज की खनक खेलों के हर उतार-चढाव को बाखूबी बयां करती थी तो स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस के मौके पर देश के जनगणमन को राष्ट्रीय स्वाभिमान से ओतप्रोत कर देती थी। 1962 की हार से निराश जनता, 1963 की वह परेड कत्तई नहीं भूल सकती थी जब नेहरू स्वयं पैतीस-चालीस सांसदों के साथ परेड में शामिल थे और जसदेव सिंह की आवाज ने जन-जन के मन तक दस्तक दे दी थी। लगभग उन्चास बार जसदेव जी ने ऐसे राष्ट्रीय अवसरों पर कमेंट्री की थी। जसदेव सिंह जी को अपने प्रेरक मेलविल डी मेलो के साथ मिलकर भी कमेंट्री का मौका मिला और वे मशहूर क्रिकेट कमेंटेटर ए. एफ. एस. तलयारखान की तारीफों की बड़ी कद्र करते थे। जसदेव सिंह जी की आवाज में एक मनमाफ़िक रवानगी थी जो उनके जीवन में भी दिखती थी। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी गीता बजाज की पुत्री कृष्णा से शादी की थी और उस समय इस पंजाबी व मारवाड़ी की शादी की बड़ी चर्चा भी हुई थी। जीवन के प्रति कितने जिंदादिल थे कि वे बिटिया प्रीती सिंह के लिए अपने हर विदेशी दौरों से गुड़िया लाना नहीं भूलते थे, इसका एक बेहतरीन कलेक्शन उनके यहाँ देखा जा सकता था। एक हॉलीवुड फिल्म ‘द विंड कैननॉट रीड’ में आपने अभिनय भी किया और इसके साथ ही लेखक जसदेव सिंह के रूप में भी आपने अपना एक अलग ही मुकाम बनाया। धर्मयुग जैसी अपने समय के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों खेल और अन्य विषयों पर आपने आलेख लिखे। पाँच किताबें भी जसदेव जी ने लिखीं और अपनी जीवनी ‘मै जसदेव सिंह बोल रहा हूँ’ भी पूरी की जिसमें जीवन के तमाम रोचक किस्से मिलते हैं। 

Wednesday, October 3, 2018

भारत और चीन के मध्य नेपाल ब्रिज या बफर स्टेट?


साभार: नवभारत टाइम्स 

चीन-नेपाल संबंधों के बारे में इतिहास के पन्ने बहुत कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं और इसका एक बेहद महत्वपूर्ण कारण भौगोलिक रूप से नेपाल का चीन से केवल उत्तर की ओर से जुड़ना है। तिब्बत की ओर से चीन से जुड़े नेपाल पर चीन की नज़र हमेशा रही है लेकिन भारत-नेपाल संबंध व भारत की तिब्बत मुद्दे पर दिलचस्पी को देखते हुए चीन सशंकित ही रहता आया था। नेपाल के राजतांत्रिक लोकतंत्र से लोकतांत्रिक गणतंत्र बनने की विकासयात्रा के मध्य उभरे वामपंथी नेतृत्व की उपस्थिति से चीन को नेपाल के करीब आने में एक सहूलियत अवश्य हुई है। नेपाल जहाँ चीन की ओबोर नीति को समर्थन देने वाले देशों में अग्रणी देश बना वहीं उसी ओबोर नीति के तहत चीन ने नेपाल में भारी निवेश करना शुरू किया। सितम्बर माह में ही चीन ने 2.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की घोषणा की जो चीन-नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेलवे लाइन विकसित करने में प्रयुक्त होगा। चीन और नेपाल ट्रांजिट प्रोटोकॉल के लिए सहमत हुए हैं जिससे नेपाल अपनी जरुरत के मुताबिक छह बॉर्डर पॉइंट्स यथा- रसुवा, तातोपानी, कोरला, कीमाथांका, यारी और ओलांगचुंग गोला का इस्तेमाल कर सकेगा। इसके तहत चीन ने अपने चार बंदरगाह तियानजिन, शेनजेन, लिआन्यूंगांग व झांजीआंग खोल दिए, इसमें तीन लैंझाउ, ल्हासा व शिगास्ते जैसे शुष्क बन्दरगाह भी शामिल हैं। चीन केरांग-काठमांडू रेल परियोजना (ट्रांस हिमालयन मल्टीडाईमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क) पर काम कर रहा है और साथ ही परस्पर वायु व भूमि संपर्कों के फैलाव पर भी ध्यान दे रहा है। कोसी, गंडकी और करनाली आर्थिक गलियारे पर प्रगति देखी जा सकती है। नेपाल-चीन के मध्य सांस्कृतिक-शैक्षणिक सहयोग की अन्य घोषणाएँ तो जब-तब आती ही हैं, इनके मध्य सैन्य कूटनीति में आयी तेजी भी गौरतलब है। माह अप्रैल में सागरमाथा फ्रेंडशिप मिलिटरी एक्सरसाइज फेज वन के बाद इस महीने नेपाल चेंगदू में इसके दूसरे संस्करण में भी परिभाग कर रहा है। यों तो नेपाल, भारत के साथ एक वर्ष में दो बार होने वाले सूर्यकिरण मिलिटरी एक्सरसाइज में भी परिभाग करता है, जिसमें सागरमाथा मिलिटरी एक्सरसाइज के मुकाबले कहीं अधिक सैन्य बल संलग्न होता है लेकिन नेपाली सरकार ने इसी महीने भारत द्वारा आयोजित बिम्सटेक बे ऑफ़ बंगाल जॉइंट मिलिटरी एक्सरसाइज के पहले संस्करण में परिभाग करने से सहसा ही इंकार कर दिया और कूटनीतिक संबंधों को देखते हुए नेपाल ने अपना पर्यवेक्षक भारत भेज दिया।

ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सामरिक संबंधों के संदर्भ में यदि नेपाल के भारत और चीन से संबंध परस्पर तौले जाएँ तो यकीनन भारत-नेपाल संबंध, नेपाल-चीन संबंध से अधिक स्वाभाविक, अधिक गहरे और कभी भी अपनी महत्ता नहीं खोने वाले नज़र आएंगे। लेकिन 2015 के विनाशकारी भूकंप के बाद तथाकथित भारतीय सीमाबंदी के बाद नेपाली जनमानस ने एक राष्ट्र पर अतिनिर्भरता के दुष्परिणाम पर सोचने को मजबूर हुए। इसीसमय चीन ने भी तातोपानी में अपना एकमात्र व्यापारिक चेकपॉइंट यह कहते हुए बंद किया था कि वहाँ उन्हें चीन विरोधी गतिविधियों की आशंका है लेकिन नेपाली जनमानस पर फ़िलहाल राजसत्ता के विरुद्ध हुई क्रांति के वामपंथी नायक इतने प्रभावी हो चुके हैं कि उन्होंने चुनाव में तथाकथित भारतीय सीमाबंदी को अधिक तूल दिया। चीन के भारी-भरकम निवेश पर एक तरह के ऋण-बंधन में फंसने का भय स्पष्ट है। श्रीलंका के उदाहरण से नेपाली कूटनीतिक समाज भी अवगत है। तथ्य यह भी है कि सन 2015 से ही नेपाल-चीन तातोपानी व्यापारिक सीमापॉइंट बंद है और एकमात्र रासूवगाड़ी-केरुंग पॉइंट अपने ख़राब अवसंरचना विकास के कारण सुस्त पड़ा है। चीन ने अवश्य ही स्थलबद्ध नेपाल के लिए अपने चार बंदरगाह खोल दिए हैं किन्तु नेपाली घरेलू मीडिया में यह भी विमर्श समानान्तर चल रहा है कि नजदीकी चीनी बंदरगाह भी 2600 किमी दूर है जबकि भारत का हल्दिया पोत काठमांडू के दक्षिण में महज 800 किमी की दूरी पर है। भारत-नेपाल सीमा से कोलकाता की दूरी जहाँ 742 किमी है, वहीं विशाखापत्तनम 1400 किमी की दूरी पर है। परेशानी भारतीय सीमा पर कस्टम संबंधी लालफीताशाही वाले प्रावधानों व भ्रष्टाचार से है। हालाँकि, रक्सौल-काठमांडू और जयनगर-जनकपुर-कुर्था रेलवे लाइन पर इस वक्त भारत जोरशोर से काम कर रहा है। बीरगंज-रक्सौल, बिराटनगर-जोगबनी, भैरहवा-सोनौली और नेपालगंज-रेपड़िया सहित चार बड़े कस्टम चेकपॉइंट्स और नेपाल के तराई क्षेत्र से जुडी सडकों का विस्तारण व उनकी मरम्मत का काम भी प्रगति पर है। 

मन में कहीं भूटान-भारत संबंध को रखते हुए जब नेपाल से भारतीय अपेक्षाओं की पड़ताल की जाएगी तो निराशा हाथ लगेगी ही। भारत-नेपाल संबंधों की तूलना मालदीव चुनावों से उभरे नए समीकरणों से भी करना उचित नहीं होगा क्योंकि जिसतरह मालदीविअन जनमानस ने सत्ता दबाव को धता बताते हुए चीनपरस्त सरकार के खिलाफ मत दिया उसीप्रकार नेपाली जनता ने भी वामपंथ की ऐसी सरकार चुनी है, जिसका झुकाव चीन की तरफ है। यह सच स्वीकारना होगा कि नेपाल अपने कूटनीतिक व सामरिक संबंधों में एक सुरक्षित संतुलन की सम्भावना तो तलाशेगा ही और इसी संतुलन की तलाश उसे चीन से नए-नए समझौतों की तरफ ले जाती है। एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में यकीनन नेपाल एक सौदेबाज देश के रूप में व्यवहार कर रहा है। नेपाल ने तिब्बत-सन्दर्भ में चीन से कहा है कि वह अपनी जमीन चीन-विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल नहीं होने देगा, इसीतरह उसने भारत को भी आश्वासन दिया है कि उसकी भारत के साथ खुली सीमा का दुरूपयोग आतंकवादी गतिविधियों में वह नहीं होने देगा। यह एक तथ्य है कि भारत के तनिक सुलझे व गंभीर प्रयासों से परस्पर संबंधों में पुनः नयी ऊष्मा भी लाई जा सकती है। भारत और नेपाल का इतिहास व समाज एक-दूसरे का स्वाभाविक साझीदार बनाते हैं और भूगोल इसमें भारत को चीन के सापेक्ष नेपाल के लिए हमेशा ही वरीय देश बनाकर रखता है। इस स्थिति में भारत को अपना अवसर अवश्य ही साधना चाहिए।  

नेपाल के नवगठित सरकार के मुखिया खडग प्रसाद ओली बेहद ही कूटनीतिक तरीके से कहते हैं कि नेपाल दो शक्तिशाली राष्ट्रों चीन व भारत के मध्य एक बफर स्टेट की तरह नहीं अपितु ब्रिज स्टेट की तरह अपना भविष्य देखता है। पहली नज़र में यह एक बेहद सकारात्मक बयान लगता है लेकिन नेपाली सरकार की तरफ से फ़िलहाल ऐसी कोई पहल नहीं दिखती, जिससे भारत और चीन के संबंधों में नेपाल एक सेतु की तरह कार्यरत दिखे। वैसे रणनीतिक रूप से भी नेपाल अभी स्थिति में है भी नहीं कि वह इन दोनों शक्तियों के मध्य कोई पुल बना सके लेकिन इस बयान से उसकी यह मंसा अवश्य ही स्पष्ट है कि नेपाल एक बफर स्टेट की तरह दोनों शक्तियों भारत एवं चीन के सुझाये संकेतों के अनुरूप चलने की बजाय उनके मध्य एक निर्णायक शक्ति के रूप में परस्पर संबंधों का निर्वहन करना चाहता है। 

Tuesday, October 2, 2018

अपने भीतर के गाँधी के खोजें

साभार: आईनेक्स्ट जागरण 
  
जितना पढ़्ता जाता हूँ गाँधी जी को उतना ही प्रभावित होता जाता हूँ। मेरे लिये गाँधी जी सम्भवत: सबसे पहले सामने आये दो माध्यमों से, पहला- रूपये की नोट से, दूसरा एक लोकप्रिय भजन- रघुपति राघव राजाराम...फिर पता चला इन्हें बापू भी कहते हैं; मोहन भी, इन्होने आज़ादी दिलवाई और सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। बापू की लाठी और चश्मा एक बिम्ब बनाते रहे।  इसमे चरखा बाद में जुड़ गया। पहले जाना कि यह भी एक महापुरूष है, बाकि कई महापुरुषों की तरह। और तो ये उनमे कमजोर ही दिखते हैं। सदा सच बोलते हैं और हाँ पढ़ाई में कोई तीस मारखां नहीं थे। ये बात बहुत राहत पहुँचाती थी। पहला महापुरुष जो संकोची था, अध्ययन में सामान्य था। मतलब ये कि --बचपन में सोचता था --ओह तो, महापुरुष बना जा सकता है, कोई राम या कृष्णजी की तरह, पूत के पांव पालने में ही नहीं दिखाने हैं। फिर गाँधी जी का 'हरिश्चंद्र नाटक' वाला प्रकरण और फिर उनकी आत्मकथा का पढ़ना.. मोहनदास का झूठ बोलना, पिताजी से पत्र लिखकर क्षमा याचना करना। पिता-पुत्र की आँखों से झर-झर मोतियों का झरना. ...प्रसंग अनगिन जाने फिर तो..पर एक खास बात होती गयी। गाँधी जी को जानो तो वो भीतर उतरते जाते हैं, उतने ही प्राप्य, स्पृश्य हो जाते हैं। 

किशोरावस्था में गाँधी जी का मतलब ये हो गया था-'-कोई एक गाल पे झापड़ दे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो…!’ गांधीजी कायर थे और जाने क्या-क्या सुना, उन लोगों के मुँह से जिन्होंने कभी नवजीवन प्रकाशन से छपने वाली २० रूपये वाली बापू की ''सत्य के प्रयोग'' तक नहीं पढ़ी। आज गाँधी एक सॉफ्टवेयर जैसे लगते हैं, जिसमे जैसे जिन्दगी की हर फाईल खुल जाती हो, सारे वाद-विमर्शों की वीडियो चल जाती हो। हम गाँधी को आजमाते जाते हैं और उनकी प्रासंगिकता पर बहस करते जाते हैं। महामना गाँधी जी की सबसे बड़ी ख़ासियत यही थी कि उन्होने सबके सामने एक आदर्श रखा, एक ऐसा आदर्श जो सबके सामने ही प्रयोग करते हुए, गलतियाँ सुधारते हुए, व्रत-उपवास, अनशन, यात्रा आदि-आदि करते हुए रचा गया, एक ऐसा आदर्श जो सामान्य मानव मन के लिए अनुकरणीय था। 

गाँधी ने सबको, सबके भीतर के गाँधी से मिलवाने की मुहिम चलायी और सफल रहे। गाँधी पर विचार करते हुए किसी प्रकार का एकेडेमिक तनाव नहीं होता, क्योंकि गाँधी केवल किताबों में नहीं हैं, भाषणों में ही नहीं हैं या फिर विभिन्न आलेखों में ही नहीं हैं। हम गाँधी को अपने किचेन में भी पाते हैं और अपने बाथरूम में भी गाँधी हमें हाइजीन का पाठ पढाते मिल जाते हैं। दिन की शुरुआत में गाँधी प्रार्थना की शक्ति समझा रहे होते हैं, तो रात में 'आत्म-निरीक्षण' की आदत डलवा रहे होते हैं। हो सकता है, गाँधी आपसे नमक का कानून तोड़ने के लिए कह रहे हों और पेट दुखने पर मिटटी का लेप भी स्वयं ही लगा रहे हों। गाँधी, इरविन से भी बात कर लेते हैं, और आपके दादा, दादी, पापा, मम्मी, भाई, बहन से भी बात कर लेते हैं। गाँधी, वकील को भी समझा रहे होते हैं, अध्यापक को भी पढ़ा रहे होते हैं और डॉक्टर को भी हिदायतें दे रहे होते हैं। गाँधी हर जगह मुस्कुरा रहे होते हैं और अपनी स्वीकार्यता सरलता से बना लेते हैं। 

गाँधी वहां भी धैर्यवान और शांत हैं, जहाँ वे प्रयोग कर रहे हैं या गलतियाँ कर रहे हैं। सब आपके सामने है। गाँधी एक साथ उत्कट हैं और विनम्र हैं। गाँधी लैटिन भाषा का एक्जाम देते हैं, आंग्लभाषा में बैरिस्टरी करते हैं, पर एक सौ दस साल पहले  'हिंद स्वराज' लिखते हैं तो गुजराती  में लिखते हैं। और हाँ, 'हिंद स्वराज' में कोई भाषण या कठिन निबंध नहीं लिखते वरन सामान्य जनों के प्रश्नों का सरल व व्यापक सम्पादकीय उत्तर दे रहे होते हैं। गाँधी एक साथ संकोची व परम निडर हैं। वो मान लेते हैं कि वे डरपोक हैं, फिरोजशाह मेहता की तरह जिरह नहीं कर सकते, पर अफ्रीका में अपनी पगड़ी नहीं उतारते, मोहनदास। मोहन से महात्मा बनने की यात्रा एक क्रमिक सुधारयात्रा है, साधारण के असाधारण बन जाने की महागाथा है, जिसका साक्षी हिन्दुस्तान का आख़िरी व्यक्ति है। 

मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, गाँधी जी का प्रयोगधर्मी होना। जीवन-व्यापार में ऐसी कोई चीज नहीं जिस पर गाँधी प्रयोग करते ना दिख जाते हों। वो आपको मालिश करना सिखा सकते है, बाल काटना बता सकते हैं. अंतःकरण शुद्धि की विधियां बता सकते हैं और तिलहन की फायदेमंद खेती कैसे करें, यह भी बता सकते हैं।  गाँधी बच्चों से ठिठोली कर सकते हैं। नोआखाली में उन्माद से जूझ सकते हैं। गाँधी आपको सरल ह्रदय वाला बना सकते हैं, जिसमे जरा भी घमंड व कर्त्ताभाव ना हो, जब वो कहते है कि सबसे गरीब व कमजोर व्यक्ति का स्मरण करो और सोचो कि तुम्हारे इस कदम से उसे क्या फायदा होने वाला है। आपको अपनी लघुता और उपयोगिता दोनों का पता तुंरत ही लगता है। 

महामना गाँधी अपना सारा मोह छोड़ सकते हैं। चाहे वो खाने का हो, चाहे वो सेक्स का हो, चाहे वो कपड़ों का हो ...आदि-आदि। गाँधी, शिक्षा के लिए अपना घर बार छोड़ सकते हैं, अपना समाज छोड़ सकते हैं।  गाँधी पहला गिरमिटिया बन सकते हैं। गाँधी बाइबिल पढ़ सकते हैं और गीता भी, कुरान भी और जेंद अवेस्ता भी।  उनके लिए कुछ भी अनछुआ नहीं है। वो सबके हैं और सब उनके। गाँधी के लिए गैर तो अंग्रेज भी नहीं। उन्हें वेस्ट कल्चर से नहीं, अंधी आधुनिकता से ऐतराज था। उन्हें मशीन से नहीं पर भारी मैकेनाइजेशन से चिढ़ थी। 

गाँधी थकते नहीं, चलते जाते हैं। जीवन-पर्यंत चलते जाते हैं। भारत के पहले जनआंदोलन का श्रेय उन्हें प्राप्त है।  पहले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक नेता हैं वो क्योकि उनकी अपील आम आदमी के लिए थी।  उनका उपवास, गरीब का भी उपवास था और टाटा-बिड़ला का भी उपवास था।  हम गाँधी को प्यार करने लग जाते हैं क्योकि वो अपनी गलतियाँ बताते हुए, कमियां जग-जाहिर करते हुए आगे, एकदम आगे बढ़ते जाते हैं। गाँधी उन्ही क्षणों में सचेत हैं, कि उनको स्वयं का अन्धानुकरण नहीं करवाना है। गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं पनपने देनी है।  उन्हें चमत्कार नहीं बनना है। वे आचरण में श्रम की प्रतिष्ठा कर जाते हैं।  भारतेंदु हरिश्चंद्र ने  जिन भारतीयों को धीमी रेलगाड़ी का डिब्बा कहा है, उनके सामने युगपुरुष गाँधी एक नियमित, अनुशासित, सयंमित व सक्रिय दिनचर्या का आदर्श रखते हैं। 

गाँधी हर पत्र का उत्तर लिखना नहीं भूलते, कागजों के रद्दी से आलपिनों का चुनना नहीं भूलते। अपने साप्ताहिक, मासिक पत्रों में किसी भी तरह के मुद्दे को छेड़ना नहीं भूलते।  गाँधी नहीं भूलते कुछ भी पर हम भूल जाते हैं सब कुछ। आखिर हमने गाँधी को सिम्बल बना लिया है। टाँक लिया है अपने राष्ट्रीय जीवन पर। गांधीवाद के बाकायदा संस्थान बना लिए हैं। गाँधी अनवरत जिन्दा रहेंगे, उनकी प्रार्थना अमर रहेगी, किसी भ्रमित की गोली उन्हें नहीं रोक सकेगी कभी भी, क्योंकि उन्होने अपनी जगह आसमान या धरती पर नहीं बनाई थी; दीवारों या नोटों पर नहीं बनाई थी, उन्होने बनाई थी अपनी जगह समाज के अंतिम आदमी के दिल में। तो वो सदा-सर्वदा मुस्कुराते रहेंगे। उनकी प्रासंगिकता की बार-बार होने वाली बहस भी बेमानी है, क्योंकि वो जीवन-व्यापार से कभी अनुपस्थित ही नहीं होते, हम भ्रमित, श्रांत उन्हें खोज नहीं पाते और बहस करने लगते हैं प्रासंगिकता की। 
देर नहीं करनी चाहिए, अब हमें अपने भीतर के गाँधी को पुकारना चाहिए और महामना की आवाज को सुनना चाहिए। ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, धरती गरम हो गयी है, मानवी उन्माद नए चरम पर हैं, तो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?                              
                                                                                        

Tuesday, September 25, 2018

नेपाल सौदेबाज, दगाबाज नहीं


साभार: गंभीर समाचार 

स्वतंत्र संप्रभु देश की विदेश नीति जब गढ़ी जाती है तो उन प्रभावी कारकों की पड़ताल की जाती है, जिनकी अवहेलना नुकसानदायक हो सकती है। भारत की ओर से तीन तरफ से और चीन की तरफ से एक तरफ से घिरे नेपाल को भी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की बुनियाद गढ़नी है। एक समय लगभग असंभव लग रहे संविधान-निर्माण की प्रक्रिया के सकुशल लोकतांत्रिक रीति से संपन्न हो जाने के पश्चात् नेपाल ने विधिसम्मत लोकतांत्रिक चुनाव आयोजित कर स्वयं को स्पष्ट बहुमत वाली नयी सरकार भी प्रदान कर दिया है। संगठित वामपंथ की सरकार के बनने से भारत के साथ नेपाल के संबंधों में वह जोश तो नहीं ही है, किंतु भारत-नेपाल संबंधों में आयी यह जकड़न दरअसल उस अविश्वास से उपजती है जिसका मूल नेपाली नवगठित ओली सरकार के चीन के प्रति दिखाई जा रहे झुकाव में है। चीन दुनिया की प्रमुख सामरिक-आर्थिक शक्ति है, न यह तथ्य नज़रअंदाज के काबिल है और न ही यह कि भारत तेजी से उभरती विश्व शक्ति है। चीन ओबोर नीति के आधार पर अपना खजाना खोले हुए है जो नेपाल की नवनिर्माण की आकांक्षा के लिए एक बेहद ही स्वाभाविक आकर्षण है। लोकतांत्रिक नेपाल आर्थिक मजबूती के लिए यदि भविष्य के व्यापारिक लाभों को लेकर उत्सुक है तो भारत की भी अवहेलना महंगी पड़ सकती है। अब जबकि, किसी एक देश पर निर्भरता भी भावी हितों को देखते हुए खतरनाक है, ऐसे में यदि भारत और चीन के संबंध भी सीधी रेखा में न हों तो नेपाल की कठिनाई का अंदाजा लगाया जा सकता है। नेपाल अपनी भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए भारत और चीन की भू-राजनीतिक स्थिति की भी अनदेखी नहीं कर सकता, यह उसकी विदेशनीति निर्माण-प्रक्रिया की प्राथमिक बाध्यता है। 

ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सामरिक संबंधों के संदर्भ में यदि नेपाल के भारत और चीन से संबंध परस्पर तौले जाएँ तो यकीनन भारत-नेपाल संबंध, नेपाल-चीन संबंध से अधिक स्वाभाविक, अधिक गहरे और कभी भी अपनी महत्ता नहीं खोने वाले नज़र आएंगे, किन्तु नेपाल भी अपने कूटनीतिक व सामरिक संबंधों में एक सुरक्षित संतुलन की सम्भावना तो तलाशेगा ही। इसी संतुलन की तलाश उसे चीन से नए-नए समझौतों की तरफ ले जाती है। कोई भी तटस्थ विदेश नीति विश्लेषक यदि नेपाल के दृष्टिकोण से विचारे तो यही कहेगा कि नेपाल अपनी स्वाभाविक चाल चल रहा है। मन में कहीं भूटान को रखते हुए भारतीय विश्लेषक जब नेपाल से भारतीय अपेक्षाओं की पड़ताल करते हैं तो उन्हें निराशा हाथ लगती है। लेकिन बदलती परिस्थितियों के हिसाब से भारतीय विदेश नीति में नेपाल के प्रति जो तत्परता आनी चाहिए थी उसकी अनुपस्थिति पर भी ध्यान जाना चाहिए। भारत और नेपाल के संबंध उतार-चढ़ावों के बावजूद अमूमन बेहतरीन ही रहे हैं। किन्तु जिस तरह बदलते नए नेपाल की नब्ज महसूस करते हुए भारत को अपनी नेपाल नीति को अद्यतन करना था, वह नहीं हो सका और भारत की नेपाल नीति में एक आलस्य व जड़ता बनी रही। भारत और चीन के मध्य स्थलबद्ध नेपाल एक सैंडविच की तरह महज बफर स्टेट तो नहीं बनना चाहेगा। नेपाल में नयी सरकार के शपथ लेने तक भारत सरकार को ‘नव-नेपाल’ को देखते हुए एक नयी व बहुआयामी नेपाल नीति तैयार रखनी थी जिसमें भूराजनीतिक कारक व चीनी संदर्भ तफ्सील से लक्षित होते। किंतु अभी तक भारतीय रवैया देखकर यही लगता है कि भारत, नेपाल के हर कूटनीतिक कदम पर चौंक ही रहा है। 

2015 के विनाशकारी भूकंप के बाद तथाकथित भारतीय सीमाबंदी के बाद नेपाली जनमानस ने एक राष्ट्र पर अतिनिर्भरता के दुष्परिणाम पर सोचने को मजबूर हुए। इसीसमय चीन ने भी तातोपानी में अपना एकमात्र व्यापारिक चेकपॉइंट यह कहते हुए बंद किया था कि वहाँ उन्हें चीन विरोधी गतिविधियों की आशंका है लेकिन नेपाली जनमानस पर फ़िलहाल राजसत्ता के विरुद्ध हुई क्रांति के वामपंथी नायक इतने प्रभावी हो चुके हैं कि उन्होंने चुनाव में तथाकथित भारतीय सीमाबंदी को अधिक तूल दिया। भारत-नेपाल मुक्त सीमा के दोनों ओर रहने वाले मधेसियों से भारतीयों की सामाजिक-सांस्कृतिक साम्यता और उनकी नेपाली राष्ट्रीय राजनीति में कम होती महत्ता ने भी इसमें जैसे आग में घी का काम किया। यही वह नाजुक समय था जब भारतीय कूटनीति को अधिक तत्पर व भारतीय उपस्थिति को अधिक मुखर होना था, किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा हो न सका। नेपाल, चीन के ओबोर नीति को समर्थन देने वाले प्रथम पंक्ति के देशों में है। नवनिर्माण के आकांक्षी नेपाल को इसमें निश्चित ही अपनी अवसरंचना को नयी दिशा देने का अवसर दिखाई पड़ता है। चीन ने नेपाल में भारी-भरकम निवेश किया है और नयी-नयी घोषणाएँ भी जब-तब होती जाती हैं। चीन केरांग-काठमांडू रेल परियोजना पर काम कर रहा है और साथ ही परस्पर वायु व भूमि संपर्कों के फैलाव पर ध्यान दे रहा है। कोसी, गंडकी और करनाली आर्थिक गलियारे पर भी प्रगति देखी जा सकती है। 2017 में चीन ने नेपाल के लिए 8.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की घोषणा की थी। उसी साल प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए चीनी रक्षा मंत्री चांग वानक्वान ने 32.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता नेपाली सेना को देने की घोषणा की थी। पिछले वित्तीय वर्ष के शुरुआती दस महीनों में ही नेपाल में चीनी निवेश, नेपाल के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का 87% है। हाल ही में चीन ने नेपाल के साथ नए ट्रांजिट प्रोटोकॉल के तहत अपने चार बंदरगाह तियानजिन, शेनजेन, लिआन्यूंगांग व झांजीआंग खोल दिए, इसमें तीन लैंझाउ, ल्हासा व शिगास्ते जैसे शुष्क बन्दरगाह भी शामिल हैं। इसके तुरंत बाद ही नेपाली सरकार ने भारत द्वारा आयोजित बिम्सटेक बे ऑफ़ बंगाल प्रथम संयुक्त सैन्य अभ्यास में परिभाग करने से सहसा ही इंकार कर दिया हालाँकि कूटनीतिक संबंधों को देखते हुए नेपाल ने अपना पर्यवेक्षक भारत भेज दिया। तथ्य यह भी है कि नेपाल इसी समय चीन के साथ सागरमाथा सैन्य अभ्यास के द्वितीय संस्करण में परिभाग कर रहा है। 

इसतरह देखा जाय तो यह कहना मुनासिब होगा कि नेपाल अब एक स्वतंत्र सौदेबाज देश के रूप में व्यवहार कर रहा है। चीन के साथ वह यकीनन अपने संबंध प्रगाढ़ करना चाहता है परंतु भारत से अपने संबंधों को भी वह सम्हालना चाहता है। नेपाल के कूटनीतिक हलकों में भारत के सापेक्ष चीन को लेकर एक पक्षपात अवश्य है किन्तु अभी जो कूटनीतिक विश्वास भारत को लेकर है, वह चीन को लेकर नहीं है। यहीं भारतीय कूटनीति के लिए पर्याप्त अवसर मौजूद हैं। चीन के भारी-भरकम निवेश पर एक तरह के ऋण-बंधन में फंसने का भय स्पष्ट है। श्रीलंका के उदाहरण से नेपाली कूटनीतिक समाज भी अवगत है। तथ्य यह भी है कि सन 2015 से ही नेपाल-चीन तातोपानी व्यापारिक सीमापॉइंट बंद है और एकमात्र रासूवगाड़ी-केरुंग पॉइंट अपने ख़राब अवसंरचना विकास के कारण सुस्त पड़ा है। इसके अलावा ध्यातव्य यह भी है कि नेपाल ने आख़िरकार पूर्वघोषित पश्चिमी सेती हाइड्रोप्रोजेक्ट में चीनी मदद को दरकिनार करते हुए खुद के संसाधनों से विकसित करने का निर्णय लिया है। चीन ने अवश्य ही स्थलबद्ध नेपाल के लिए अपने चार बंदरगाह खोल दिए हैं किन्तु नेपाली घरेलू मीडिया में यह भी विमर्श समानान्तर चल रहा है कि नजदीकी चीनी बंदरगाह भी 2600 किमी दूर है जबकि भारत का हल्दिया पोत काठमांडू के दक्षिण में महज 800 किमी की दूरी पर है। भारत-नेपाल सीमा से कोलकाता की दूरी जहाँ 742 किमी है, वहीं विशाखापत्तनम 1400 किमी की दूरी पर है। परेशानी भारतीय सीमा पर कस्टम संबंधी लालफीताशाही वाले प्रावधानों से है। एक स्रोत के अनुसार कोलकाता से जर्मनी के हैम्बर्ग जाने वाले कारगो के खर्च की तूलना में काठमांडू से कोलकाता जाने वाले कारगो का खर्च तीन गुना है। वैसे, नेपाली व्यापारी विशाखापत्तनम में हाल ही में प्रस्थापित इलेक्ट्रिक कारगो ट्रैफिकिंग सिस्टम से होने वाली सहूलियत से संतुष्ट हैं। नेपाल ने तिब्बत-सन्दर्भ में चीन से कहा है कि वह अपनी जमीन चीन-विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल नहीं होने देगा, इसीतरह उसने भारत को भी आश्वासन दिया है कि उसकी भारत के साथ खुली सीमा का दुरूपयोग आतंकवादी गतिविधियों में वह नहीं होने देगा।

नेपाल का कूटनीतिक रवैया अप्रत्याशित नहीं है कि उसे एक धोखबाज देश की तरह देखा जाय, किन्तु यकीनन नेपाल एक सौदेबाज देश के रूप में उभर रहा है। कहना होगा कि भारत ने नयी परिस्थितियों के अनुरूप तैयारियाँ नहीं कीं और इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि भारत के तनिक सुलझे व गंभीर प्रयासों से परस्पर संबंधों में पुनः नयी ऊष्मा भी लाई जा सकती है। भारत और नेपाल का इतिहास व समाज एक-दूसरे का स्वाभाविक साझीदार बनाते हैं और भूगोल इसमें भारत को चीन के सापेक्ष नेपाल के लिए हमेशा ही वरीय देश बनाकर रखता है। इस स्थिति में भारत को अपना अवसर अवश्य ही साधना चाहिए।  



Friday, September 21, 2018

भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश: एकीकरण बनाम महासंघ के तर्क


साभार: दिल्ली की सेल्फी 

लाहौर में जन्में प्रसिद्द भारतीय फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा की 2004 में आयी फिल्म वीर-ज़ारा में मशहूर गीतकार जावेद अख्तर का लिखा एक गीत है जो सुर-साम्राज्ञी लताजी और उदित नारायण की आवाज में बेहद मकबूल हुआ था। 'धरती सुनहरी अम्बर नीला, हर मौसम रंगीला, ऐसा देश है मेरा हो...ऐसा देश है मेरा !' आख़िरी बंद में यह गीत कुछ यों हो जाता है- 'तेरे देश को मैंने देखा, तेरे देश को मैंने जाना...,....ऐसा ही देश है मेरा, जैसा देश है तेरा...!' यह फिल्म, इसके निर्देशक, इसकी कहानी, इसके लेखक और गीतकार यह निश्छल संदेश देते हैं कि भारत और पाकिस्तान में एक-दूसरे के लिए नफरत की कोई गुंजायश नहीं होनी चाहिए और कायनात की अनगिन खूबसूरत नेमतों को दोनों देश की धरती साझा करती है। कहना होगा कि लोकप्रिय कला माध्यम में यह एक अद्भुत प्रयास था जो एक 'मानवीय पाकिस्तान' की छवि गढ़ता था। लेकिन संस्कृति, समाज, इतिहास और राजनीति ये अलग-अलग शब्द हैं और अपनी पूरी अर्थवत्ता में इनके गंभीर निहितार्थों की अवहेलना कत्तई नहीं की जा सकती। राष्ट्र, राज्य व राष्ट्र-राज्य, 'राजनीति' के पारिभाषिक शब्द हैं और इनके अपने विशिष्ट मायने हैं। एम. फिल. की कक्षा में मेरे पाकिस्तानी सहपाठी को इस सुंदर गाने के आख़िरी बंद से क्यों आपत्ति थी, यह मै धीरे-धीरे समझ पाया था क्योंकि वे पंक्तियाँ अनजाने में ही उसके राष्ट्र-राज्य 'पाकिस्तान' के 'रेजन डेटा (राज्य स्थापना का आधारभूत तर्क)' को चोट पहुँचा रही थी। 

राष्ट्र जहाँ राजनीतिक व सामाजिक अस्तित्व का परिचायक है वहीं राज्य मूर्त अस्तित्व का जिसमें जरूरी तत्वों के रूप में निश्चित भू-भाग, जनता, सरकार और संप्रभुता पाए जाते हैं। आधुनिक 'राष्ट्र-राज्य' होने के लिए राष्ट्र और राज्य दोनों की विषेशताओं का होना आवश्यक है। यह समझ लेना बेहद आवश्यक है कि एक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान का प्रादुर्भाव 1940 से ही माना जाता है जो 1947 में राज्य की जरूरी विशेषताएँ पाकर एक 'राष्ट्र-राज्य' बनने की अपनी कोशिशों में लग गया। औपनिवेशिक अतीत से मुक्त हुए देशों के बारे में इसलिए ही कहा जाता है कि यहाँ राष्ट्र-निर्माण एवं राज्य-निर्माण की समांनातर प्रक्रियाएँ सतत चलती रहती हैं। यहीं उद्धृत करना समीचीन होगा कि जिन्ना जहाँ भारत-पाकिस्तान को साझे मातृभूमि के दो राष्ट्र के रूप में देखने के हिमायती थे वहीं गाँधी इन्हें 'एक राष्ट्र' के 'दो राज्यों' के रूप में स्वीकार करना चाह रहे थे। आगे चलकर पाकिस्तान का एक और विभाजन हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। यह ठीक है कि दो या दो से अधिक राष्ट्र-राज्य अपने इतिहास, समाज, संस्कृति के कुछ या अधिकांश पन्ने साझा करते हैं पर इस आधार पर उनके 'एकीकरण' का एकतरफा तर्क गढ़ना व उसका एकपक्षीय आरोपण द्विपक्षीय संबंधों में और अधिक तनाव ही भरेगा। कोई भी दो या दो से अधिक राष्ट्र-राज्य अपने-अपने राष्ट्रवाद को सुरक्षित रखते हुए एक 'महासंघ' बनकर काम करने को राजी हो सकते हैं जिससे विश्व-राजनीति में साझे राष्ट्र-हित साथ मिलकर सँवारे जा सकें। राष्ट्र और राज्य की पृथक-पृथक महत्ता समझते हुए ही पीछे कई बार गंभीर रूप से 'महासंघ' की योजना पर तो अवश्य ही विचार-विनिमय हुआ किन्तु किसी भी गंभीर विचारक अथवा राजनेता ने 'एकीकरण' की बात कभी नहीं चलायी। ‘महासंघ’ बनाकर विभाजन का सच नहीं बदला जा सकता लेकिन उसके दुष्परिणामों को नियंत्रित किया जा सकता है। 'महासंघ' के तर्क को जिन्ना सहित, राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, हामिद अंसारी आदि अनेक हस्तियाँ स्वीकार करती हैं और समय-समय पर इसकी आवश्यकता पर भी बात करती हैं, किन्तु 'एकीकरण' का एकतरफा तर्क सामान्यतया नहीं ही दिया गया।  

अक्टूबर 1990 में हुए पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एकीकरण राष्ट्र-राज्यों का यकीनन एक सुंदर उदाहरण है, जिससे इतना अवश्य यकीन उपजता है कि एकीकरण की प्रक्रिया असम्भव नहीं है। पर यह उदाहरण भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश पर आरोपित करने से पहले उनकी अलग-अलग ऐतिहासिक परिस्थितियों का मूल्यांकन करना बेहद जरूरी है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीपीय सन्दर्भ में यह उदाहरण उपयुक्त नहीं है। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते दुनिया उदारवादी एवं साम्यवादी विचारधारा के स्तर पर संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत रूस के नेतृत्व में बंटकर फिर शीत युद्ध के आगोश में चली गयी थी। जर्मनी का पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के रूप में विभाजन इसी रस्साकस्सी का परिणाम था। पृथक राष्ट्र-अस्तित्व के मूल में तर्क ‘विचारधारा व राजनीतिक व्यवस्था’ का था। 1986 में सोवियत रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्बाचेव ने ‘ग्लासनोस्त’ व ‘पेरेस्त्रोइका’ की घोषणा कर दी थी, जिससे अंततः नब्बे के दशक में आते-आते सोवियत विखंडन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। इन नयी परिस्थितियों का लाभ लेते हुए पश्चिमी जर्मनी के चांसलर हेल्मुट कोल ने अमेरिकी तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज हर्बर्ट वाकर बुश के कूटनीतिक प्रयासों से जर्मन-एकीकरण संभव कर दिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दोनों ओर की जर्मन जनता इस एकीकरण को चाहती थी और बर्लिन की दीवार बिना किसी राजनीतिक रणनीतिक योजना के पूर्णतः स्वतः स्फूर्त जनता द्वारा ढहायी गयी। वह ‘विचारधारा व राजनीतिक व्यवस्था’ जो जर्मन-विभाजन को आधार देती थी, वही कमजोर पड़ती गयी थी।  इसके इतर पाकिस्तान के राष्ट्रगत अस्तित्व का मूल तर्क  ‘धार्मिक’ है और बांग्लादेशी राष्ट्रगत अस्तित्व का मूल तर्क ‘सांस्कृतिक (बंगाली)’ है, जो अभी भी पूरी मजबूती से बना हुआ है। इसलिए ‘भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश महासंघ’ के तर्कों में जहाँ सहयोग की ऐसी मंशा शामिल है जो किसी भी राष्ट्र-राज्य की राष्ट्र्रीय संकल्पना को बिना हानि पहुंचाए परस्पर सहयोग की अधिकतम सम्भवना को टटोलता है, वहीं ‘एकतरफा एकीकरण’ के तर्क की मंशा ‘राष्ट्रगत असुरक्षा’ पनपाती है। 

विश्व-राजनीति, दक्षिण एशियाई राजनीति एवं भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश के वर्तमान संबंध एवं इनकी मौजूदा घरेलू राजनीति भी इस बात की ताकीद करती है कि यह समय ‘एकीकरण के तर्क’ का कत्तई नहीं है, बल्कि ऐसे समय में यदि ‘महासंघ’ बनाने का तर्क भी यदि इन तीनों देशों में से किसी एक देश का कोई एक नेता देने की कोशिश करे तो यह एक बेहद सकारात्मक बात मानी जाएगी। पाकिस्तान की राजनीति में अभी जो इमरान युग शुरू हुआ है उसका आधार वही सेना है जो भारत से अपने संबंधों को सुधारने की दिशा में उदासीन है। भारत-पाकिस्तान संबंध ठिठके पड़े हैं, सामान्य बातचीत का दौर भी स्थगित है। भारत का पारंपरिक मित्र रूस, पाकिस्तान को हथियार दे रहा और उनके सैनिकों को प्रशिक्षण भी दे रहा। तेजी से उभरते चीन से भारत के संबंधों में जहाँ डोकलम, तिब्बत, नेपाल और मालदीव का तनाव है तो उसी चीन से पाकिस्तान के गहराते संबंधों को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं!  बांग्लादेश एक सघन आंतरिक राजनीतिक तनाव से गुजर रहा है और वहाँ भी बांग्लादेशी शरणार्थियों व धार्मिक चरमपंथी मुद्दों ने भारत-बांग्लादेश संबंधों में एक ऐंठन पैदा की है। यथार्थ में भारत-पाकिस्तान के सतत तनावपूर्ण संबंधों को देखते हुए 'महासंघ' का लक्ष्य जितना विशिष्ट व कठिन है, 'एकतरफा एकीकरण' का तर्कारोपण, ऐसे माहौल में 'एकीकरण' तो छोड़िये, 'महासंघ' के प्रयत्नों को भी जटिल बनाएगा और यह  चिढ़ाने जैसा बेतुका भी है। 

एक गहरे विजन और प्रतिबद्ध पारस्परिक सहयोगों की रूपरेखा के साथ भारत सरकार, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ ‘महासंघ’ निर्मित करने की योजना पर तब ही काम कर सकती है जब पृष्ठभूमि में तीनों देशों में परस्पर सहयोग की बानगी हो, भले ही वह हालिया हो लेकिन एक पारस्परिक विश्वास बनने लगा हो। फिर और भी सकारात्मक होकर सोचें तो महासंघ की स्थिति साकार होने के बाद यदि इन देशों के नागरिक धीरे-धीरे यह महसूस करने लगें कि हमें ‘एकीकरण’ की ओर बढ़ना चाहिए तो उचित वैश्विक परिस्थिति में यकीनन यह एकीकरण संभाव्य हो सकता है। इसमें भी दशकों लगेंगे और यह प्रक्रिया निरंतर सहयोग व विश्वास की मांग करती है। हाल-फ़िलहाल तीनों देशों की सरकारें ऐसे किसी निरंतर सहयोग व विश्वास की प्रक्रिया में तो नहीं ही दिख रहीं।   

Friday, September 7, 2018

एकजुट अमेरिकी मीडिया द्वारा #एनेमीऑफ़नन कैम्पेन

#एनेमीऑफ़नन

साभार: गंभीर समाचार 

जिस दिन भारत अपनी आजादी की इकहत्तरवीं वर्षगांठ मनाने में मशगूल था उसीदिन अमेरिका के छोटे-बड़े तकरीबन साढ़े तीन सौ मीडिया-प्रतिष्ठानों ने  अमेरिकी प्रेस की आजादी के पक्ष में सम्पादकीय प्रकाशित किया । यह एक अभूतपूर्व घटना थी। पर कहना होगा कि यह उस अभूतपूर्व रवैये के विरुद्ध एकजुट प्रदर्शन था जो किसी भी अन्य अमेरिकी राष्ट्रपति में यों नहीं रही । पिछले एक अरसे से मीडिया द्वारा हो रही अपनी हर आलोचना को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ‘फेकन्यूज’ कह रहे हैं और जोर देकर दुहराते हैं कि मीडिया द्वारा कहा गया, दिखाया गया कुछ भी तथ्य नहीं है। ट्रम्प के अनुसार मीडिया, विपक्षी दल की तरह व्यवहार कर रहा है और यह देशहित में नहीं है। ट्रम्प यहाँ तक कहने लगे कि मीडिया उनकी दुश्मन नहीं बल्कि देश की दुश्मन है। ट्रम्प अपने ट्विटर अकाउंट से बमबारी करते हैं तो उसी ट्विटर पर एकजुट अमेरिकी मीडिया द्वारा #एनेमीऑफ़नन कैम्पेन चलाया गया। बोस्टन ग्लोब की अपील पर अमेरिकी मीडिया ने राष्ट्रपति ट्रम्प के इस मीडिया विरोधी रवैये का एकजुट विरोध किया। 

कमोबेश पूरी दुनिया में सत्ता के साथ मीडिया के जो संबंध हैं वे बहुरंगी हैं। एक लंबे समय तक यह संबंध श्वेत-श्याम था। या तो मीडिया, सरकार की निर्भीक आलोचना करती थी अथवा स्वयं ही सरकारी बन उसका भोंपू बन जाती थी। बाजार की दखलंदाजी ने इस भूमिका में एक अवसरवादी संतुलन भर दिया था। सत्ता और शक्ति के खेल को परोसते-परोसते मीडिया खुद एक बड़ी किरदार हो गयी। इंटरव्यू लेने वालों के इंटरव्यू लिए जाने लगे। प्रश्नकर्ता, द्रष्टा व विचारक बनते गए, प्रश्न छूटते गए, दृश्य धुंधले होते गए और आयातित विचारों की बमबारी ही एजेंडे में शामिल हो गए। चुनाव जो कि एक लोकतांत्रिक उत्सव है अब मीडिया के लिए महज अवसर में तब्दील हो गया। समकालीन मीडिया एक रंगारंग मेला है। हर दुकान पर एक लाउडस्पीकर बंधा है। सारे लाउडस्पीकर चालू हैं चौबीस घंटे और चीख रहे हैं। राजनीतिक दलों ने अपने-अपने लाउडस्पीकर चुन लिए हैं। उद्योगपतियों ने इन लाउडस्पीकरों की खरीददारी में मदद की है। अब अधिकांश लाउडस्पीकर वही रिकॉर्ड बजाने को मजबूर हैं, जो उन्हें पहुँचाया जाता है। 

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा का चुनाव, सांगठनिक रूप से पहला बड़ा सफल कैम्पेन माना जाता है जब मीडिया का इस्तेमाल खुलकर किया गया। पश्चिमी देशों में यह पहले हुआ, अपने देश में यह अब देखा जा सकता है। नरेंद्र मोदी के चुनाव कैम्पेन में मीडिया की भूमिका से इस प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। प्रवृत्तियाँ काफी पहले से कार्यरत हैं, परन्तु यह दशक जैसे पर्दादारी जानता ही नहीं। बाजार का साथ पाकर मीडिया एक समय बाद स्वयं में ही एक औद्योगिक घराना बन जाता है। इस बिंदु पर आकर लाउडस्पीकर अपने रेकॉर्ड बजाने की भी हैसियत रखता है। ट्रम्प से वह संतुलन टूट गया है। भारत में यह संतुलन अगले दशक में टूट सकता है। राजनीतिक दल जो मीडिया का इस्तेमाल कर कैम्पेन करते हैं अब अपनी आलोचना के जवाब में मीडिया पर ही तंज कसते हैं। ट्रोलर्स की खेती करने वाले दूसरों के ट्रोलर्स को खर-पतवार बताते हैं। फेकन्यूज फिनोमेना अब एक आत्मघाती बम है।  

विश्व राजनीति में मीडिया


 “जो मीडिया को नियंत्रित करता है वह मन को नियंत्रित करता है।  (जिम मॉरिसन )”


साभार: गंभीर समाचार 

अभिव्यक्ति के लिए भाषा और उसके संकेत चिन्हों को दर्ज करने की तकनीक के सहारे मानव ने अभूतपूर्व प्रगति की है। साझी सामाजिक स्मृति सहेजी जा सकती है और भविष्य के लिए प्रयोग में भी लाई जा सकती है। मानव-अभिव्यक्ति के अनगिन माध्यम विकसित हुए। उन सभी मीडियम्स का बहुवचन ही मीडिया कहलाता है । जैसे-जैसे राजनीतिक संरचनाएँ विकसित होती गयीं, मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती गयी। यों तो इतिहास के पन्नों में मीडिया के कितने ही रंग हैं लेकिन अब जबकि संपूर्ण विश्व में एक राजनीतिक मूल्य के रूप में लोकतंत्र स्वीकार्य हो चला है, मीडिया की भूमिका कमोबेश अब यह स्थापित है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में जवाबदेही व पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और नागरिक-समाज एवं सरकार के मध्य सेतु बनकर राजनीतिक संक्रियाओं के निर्वहन में योग देता है। 

वैश्वीकरण और मीडिया का वैश्विक स्वरूप 

संचार क्रांति ने समूचे दुनिया से एक क्लिक पर संपर्क-सम्बद्धता उपलब्ध करा दिया है। इंटरनेट ने पूरी दुनिया को चौबीसों घंटे जोड़ रखा है। सूचनाएँ अभूतपूर्व ढंग से इतिहास में पहली बार साझा हो रही हैं और इसलिए ही मार्शल मैकलुहान ने विश्व को ‘वैश्विक-ग्राम’ की संज्ञा दी। मीडिया शब्द में अब अख़बार, टेब्लॉयड, पत्रिका, रेडिओ, टीवी, सोशल साइट्स, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, ऐप आदि सभी माध्यम आते हैं। औद्योगिक क्रांति से उपजे पूँजीवाद के उत्कर्ष ने, उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद और दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के पश्चात जो वैश्विक व्यवस्था दी है उसमें अब वैश्वीकरण की बयार चल रही है। वैश्वीकरण एक ऐसी विशद सतत प्रक्रिया है जो विश्व-व्यवस्था के देशों को राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक संस्तरों पर एक-दूसरे से जुड़ने को बाध्य करती है। राष्ट्रीय सीमाएँ वैश्वीकरण के लिए उतनी मायने नहीं रखतीं और सम्प्रभुताएँ यदि तैयार न हों तो भी वैश्वीकरण का दबाव महसूस करती हैं। तकनीक के उत्कट विकास ने वैश्वीकरण को और भी शक्तिमान बनाया है जो कुशल राष्ट्र को जहाँ और भी अवसर प्रदान करती है वहीं अकुशल राष्ट्र स्वयं को इसमें नव-उपनिवेशवाद जैसी स्थिति में स्वयं को बिधा पाते हैं।

विश्व इतिहास और समकालीन वैश्वीकरण ने मीडिया का एक ‘वैश्विक स्वरूप’ गढ़ा है। अब राष्ट्रगत मीडिया, वैश्विक मीडिया से अप्रभावित नहीं रह सकती। वैश्विक मीडिया, वैश्वीकरण की शक्तियों के साथ मिलकर इस स्थिति में है कि वह किसी भी देश की मीडिया को मुद्दे पकड़ाने लगे और उसको   नियोजित विषयवस्तु भी थोपने लगे। इस स्थिति में राष्ट्रहित कब दाँव पर लग जाता है, पता ही नहीं चलता। संपूर्ण विश्व में सरकारें उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था में पनप रही हैं। उदारवादी व्यवस्था पूँजी के मुक्त प्रवाह में यकीन करती है और उसी व्यक्ति और व्यवस्था को लाभ पहुँचाती है जो पूंजीसंपन्न होती है। इसके विपरीत मीडिया अपने विकासक्रम में इस आदर्श में आगे बढ़ी है कि उसे जनपक्षधर रहना है और राज्य-उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के लिए उस सीमान्त व्यक्ति के प्रश्न भी सत्ता से करने हैं जिसके पास कोई कुशलता, कोई पूँजी शेष नहीं है। उदारवादी व्यवस्था और मीडिया के सत्व के मध्य यह संघर्ष फिर स्वाभाविक है। चूँकि राष्ट्र-राज्य शून्य में स्थित नहीं होते, वे एक वैश्विक व्यवस्था में होते हैं तो विश्व व्यवस्था की प्रकृति के बदलाव का प्रभाव यकीनन राष्ट्र-राज्य पर भी पड़ेगा। गहराते वैश्वीकरण ने राष्ट-राज्यों की मीडिया के लिए दरअसल और भी कम श्वाँस-स्थान रख छोड़ा है खासकर तब जब सरकारें पूंजीसमर्थक हों। मुनाफा ही मूल्य है बाजार का। बाजार की शक्तियाँ कुछ इस तरह से कार्य करती हैं कि मीडिया को भी पत्रकारिता के मूल्य के ऊपर बाजार के मूल्य को तवज्जो देना पड़ता है। नागरिक, मनोरंजन की चाशनी में परोसे जाने वाले समाचार की निष्पक्षता के लिए कोई मूल्य नहीं चुकाना चाहते और महज मूक दर्शक बनते चले जाते हैं।   

भारतीय मीडिया कवरेज में वैश्वीकरण व वैश्विक मामलों का नकार 

अपने देश भारत की सामान्य मीडिया कवरेज देखें तो ऐसा लगता ही नहीं कि विश्व में वैश्वीकरण घट रहा है जिससे कि हर लोकल खबर का एक वैश्विक मायने बनता है और हर वैश्विक खबर के लोकल मायने बनते हैं। अभी भी वैश्विक राजनीति के लिए अख़बारों में एक-आध पन्ना, पत्रिकाओं में एक नियमित-अनियमित स्तम्भ, टीवी चैनलों पर एक अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को समेटता कोई साप्ताहिक कार्यक्रम ही दिखाई पड़ता है, जो महत्ता के अनुपात में नगण्य है । कुछ अंग्रेजी अख़बारों को छोड़ दें तो अधिकांश हिंदी के अख़बारों में वैश्विक मामलों पर प्रस्तुतीकरण अत्यल्प है। हिंदी अख़बारों के लिए अभी भी विदेश सात समंदर पार है। उनमें छपने वाले संपादकीय आलेखों में बेहद कम आलेख वैश्विक राजनीति पर होते हैं और वह भी अधिकांश कुछ यों होते है जिसमें भारतीय विदेश नीति की उपलब्धियाँ बता दी जाती हैं। यह दौर विश्व- राजनीति के वैश्वीकरण का है और राष्ट्रीय घटनाक्रम, वैश्विक घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में यदि नहीं देखे और विश्लेषित किये जा रहे तो देश समानांतर बड़े मीडिया कोलाहलों के बीच भी लगातार अधूरे सच में जी रहा है। होना यह चाहिए कि मीडिया में यह शऊर आना चाहिए कि वह हर खबर को वैश्विक परिदृश्य में परोसे और विश्लेषण की गुंजायश बनाये। बिना इसके कोई भी मीडिया कवरेज सामान्यतः वैश्वीकरण के प्रभावों का नकार है, जो सही नहीं है। इस दोषपूर्ण कवरेज का असर भारतीय जनमत पर यों हुआ है कि जहाँ दुनिया के ज्यादातर देशों के आम चुनावों में विदेश नीति और वैश्विक मामले प्रमुख चुनावी मुद्दे होते हैं वहीं भारतीय आमचुनावों में इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो वैश्विक मुद्दे, चुनावी मुद्दे बनते ही नहीं। एक ऐसा देश जिसे जवाहर लाल नेहरू के रूप में ऐसा प्रधानमंत्री मिला था जो एक वैश्विक नेता रहे, एक ऐसा देश जो आजादी के शुरुआती दशकों में ही निर्गुट आंदोलन के माध्यम से तीसरी दुनिया के देशों का अगुआ बन गया, एक ऐसा देश जिसकी भू-राजनीतिक स्थिति लार्ड कर्जन की नजर में भी विशिष्ट थी और आज भी जो देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र की वैश्विक राजनीति के केंद्र में है, वहाँ वैश्विक मामलों की मुख्यधारा मीडिया द्वारा की जा रही अनदेखी कितनी शोचनीय व दुखद है। यह सच है कि ‘वैश्वीकरण का प्रभाव’ मीडिया में खासा चर्चा घेरता है पर ज्यादातर वह आर्थिक व सामाजिक स्तर पर ही विश्लेषित होता है। उसीप्रकार जबकि मीडिया सूचनाओं के लिए अब इंटरनेट पर खासा निर्भर है तो भी वैश्विक मामलों का महत्त्व यदि नहीं समझा जायेगा तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। समकालीन तथ्य के रूप में मीडिया द्वारा वैश्वीकरण और वैश्विक मामलों की अनदेखी राष्ट्रहित के लिए घातक है। 

मीडिया साम्राज्यवाद व विश्व राजनीति 

उदारवादी बाहुल्य ने विश्व के प्रत्येक देश के अभिजन को व्यक्तिवादी होकर पूँजी बटोरने और सहेजने में मदद दी है। वैश्वीकरण मीडिया मॉडल इतने खर्चीले हैं कि वे परम्परागत आर्थिक मॉडल पर चल ही नहीं सकते। बाजारवाद और उपभोक्तावाद की अतिशयता ने आधुनिक जीवन मूल्यों में जो घुसपैठ की है उससे मीडिया को नागरिक आधारित मॉडल चलाने में बड़ी ही परेशानियाँ हैं। यह आर्थिक विकलांगता मीडिया घरानों को विज्ञापन के लिए या तो सरकार या फिर बाजार के समक्ष घुटने टेकने को मजबूर करती है। पूरी दुनिया में यह सामान्य प्रवृत्ति बनी है कि मीडिया घराने अब किसी न किसी औद्योगिक घरानों की इकाइयाँ बन गयी हैं। यह स्थिति अभिजन को निर्भीक हो पूँजी बटोरने और सहेजने में मदद देती है। उपयुक्त चुनाव-सुधार न होने की वजह से चुनाव इतने खर्चीले होते गए हैं कि यहाँ भी चंदों के माध्यम से औद्योगिक घरानों को राजनीतिक हस्तक्षेप की भूमिका मिल जाती है। वैश्वीकरण ने दुनिया भर के औद्योगिक घरानों को हाथ मिलाने का जो मौका दिया है उससे मीडिया घरानों का भी क्रमशः वैश्वीकरण हुआ है। यह स्थिति वैश्विक जनमत निर्माण में  मीडिया को बेहद ताकतवर बना देती है। सीएनएन, बीबीसी, नेटवर्क-18 आदि के अनगिन मीडिया प्रकोष्ठ अमेरिकी इशारे पर चीन को शांतिपूर्ण पांडा नहीं खतरनाक ड्रैगन से प्रदर्शित करते हैं। इजरायल का महिमा-मंडन स्वाभाविक रीति से होगा तो ईरान एक विलेन की तरह नज़र आएगा। आतंकवाद और इस्लाम का फर्क मिटेगा और उत्तर कोरिया का तानाशाह शैतान लगने लगेगा। 

आशय यह नहीं है कि अमेरिका अथवा पश्चिमी शक्तियाँ अनिवार्य रूप से गलत ही हैं अथवा अन्य शक्तियाँ अनिवार्य रूप से सही ही हैं, लेकिन यह सुस्पष्ट है कि उदारवादी बाहुल्य के वैश्वीकरण में पश्चिमी शक्तियाँ अवश्य ही विश्व-जनमत को प्रभावित कर पाने की स्थिति में हैं।  यह एकदम अकारण और सहसा नहीं है कि आजकल अधिकांश वैकल्पिक मीडिया माध्यम इंटरनेट पर जो प्रचलित हैं उनका मूलस्थान देश अमेरिका है, जैसे- फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सप्प, गूगल, जीमेल आदि। इंटरनेट पर एकदम खुले आम अमेरिकी साम्राज्यवाद नज़र आएगा। एक व्यक्ति जब एप्पल, एंड्राइड या विंडो के सेलफोन से क्रोम ब्राउजर में गूगल सर्च से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, विकिपीडिया पर पहुँचता है, सामग्री डाउनलोड कर माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस से संपादन करता है फिर जीमेल का प्रयोग कर उसे एक मित्र के पास प्रेषित करता है, तो उसे भान भी नहीं रहता कि वह उन्हीं माध्यमों का प्रयोग कर रहा है जिनसे मीडिया साम्राज्यवाद की पृष्ठभूमि बनती है, क्योंकि उनका स्रोत एक ही देश अमेरिका है। 

इस संदर्भ में एक भारतीय उदाहरण बेहद समीचीन है जहाँ वैश्विक मीडिया कवरेज और बहुधा उनकी सूचनाओं पर आधारित भारतीय मीडिया के प्रभावित होकर कार्य करने से घरेलू और क्षेत्रीय राजनीति पर खासा प्रभाव पड़ा। मनमोहन सिंह सरकार में कुशल कूटनीतिज्ञ नटवर सिंह, देश के विदेश मंत्री थे। नटवर सिंह ईरान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान गैस पाइपलाईन पर काम कर रहे थे जो भारत होते हुए चीन तक पहुँचती और इन देशों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करती। इस राह में चुनौतियाँ कई थीं पर इसके सफल होने पर भारत की केवल ऊर्जा जरुरत ही नहीं पूरी होती बल्कि इसके दूसरे महत्वपूर्ण कूटनीतिक परिणाम भी होते। ऊर्जा जरूरतों के माध्यम से पाकिस्तान, भारत व चीन की पारस्परिक कटुता यकीनन कम होती, मध्य-पूर्व एशिया से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक एक सहयोगी क्षेत्र उभरता, जिससे अमेरिकी अथवा रूसी जैसी किसी सुपरपॉवर शक्ति के क्षेत्र में दखलंदाजी भी कम होती। एक नया ऊर्जा गलियारा विकसित होता जो कूटनीतिक रूप से भी शक्तिशाली होता और क्षेत्र में शांति और विकास की गारंटी होती। ज़ाहिर है यह क्षेत्र में अमेरिकी हितों को एक चुनौती होती। अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के संचलन में बेहद प्रमुख आर्थिक योगदानकर्ता है। मध्य-पूर्व एशिया में ‘तेल के बदले अनाज योजना’ में हुए भ्रष्टाचार की संयुक्त राष्ट्र समर्थित स्वतंत्र एजेंसी (वोल्कर कमिटी) से जाँच कराई गयी, जिसमें विभिन्न देशों के राजनयिकों के नाम आये। एक नाम उसमें नटवर सिंह का भी था। वैश्विक मीडिया में इस वोल्कर कमिटी रिपोर्ट की खूब चर्चा हुई पर फिर भी किसी और देश में किसी का इस्तीफ़ा नहीं लिया गया। लेकिन भारत में स्थानीय मीडिया ने वैश्विक मीडिया के इनपुट्स पर वो हंगामा किया जिसकी आड़ में मनमोहन सरकार ने आखिर नटवर सिंह से इस्तीफा ले लिया। ऐसा नहीं है कि इस्तीफे के बाद नटवर सिंह पर कोई अभियोजन या जांच चलायी गयी, वह मामला वहीं ठप रहा। इसके कुछ ही समय बाद भारत-अमेरिका परमाणू समझौते को अमली जामा पहनाया गया और गैस पाइपलाइन योजना का आज कोई जिक्र भी नहीं करता।     

वैश्विक मीडिया का एक सकारात्मक उभार 

इन सभी चिंताओं के बीच फिर भी काफी कुछ सकारात्मक भी है। वैश्विक मीडिया ने वह संतुलन साधने की कोशिश की है जिसमें सरोकारिता और मुनाफा दोनों में संतुलन बिठाया जा सके। इंटरनेट पर सीधे पाठकों से मूल्य वसूलकर समाचार व विश्लेषण देने का आत्मनिर्भर मॉडल विकसित हो रहा है। दुनिया भर के अभिजनों ने अपने-अपने देश में टैक्सचोरी करते हुए जो दूसरे मुल्कों में धन संचित किया है, उसका डेटा लीक होकर वैश्विक मीडिया के तहत राष्ट्रगत मीडिया में भी रिसकर आ रहा। विकीलीक्स, एडवर्ड स्नोडेन के लीक्स ने पूरी दुनिया के सामने कुछ शक्तिशाली सरकारों के दूसरे देशों में की जा रही जासूसी का भंडाफोड़ कर दिया, इसमें अमेरिका सर्वप्रमुख था। यह भी इससे पता चला कि विश्व की शक्तिशाली सरकारें, बाकी सरकारों पर गोपनीय सूचनाओं के जरिये नियंत्रण रखती हैं और कई बार मुख्यधारा की मीडिया का वें इस्तेमाल भी करती हैं। पैराडाइज पेपर्स व पनामा पेपर्स जैसे कई लीक्स ने पूरी दुनिया को झिंझोड़ दिया और इस खतरे की तरफ ध्यान दिलाया कि वैश्विक मीडिया व शक्तिशाली सरकारों का गठजोड़ बेहद घातक साबित हो सकता है। अब दुनिया में कई समूह काम कर रहे हैं जिनका नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय है और वे इसतरह के लीक्स के लिए जरूरी अवसंरचना और उनके सटीक वितरण पर जिनका ध्यान है। उदाहरण के लिए एक नाम इंटरनेशनल कंसोरिटियम ऑफ़ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स का लिया जा सकता है जिसमें भारतीय इंडियन एक्सप्रेस मीडिया समूह भी प्रतिभाग करता है। यह सकारात्मक विकास है जो इस वैश्वीकरण युग की वैश्विक मीडिया के प्रति आशाएँ जगाता है। मीडिया पर जनजागरूकता बेहद जरूरी है अथवा कब जनमन नियंत्रित होने लग जाये, यह पता ही नहीं चलता और भाग्यविधाता फिर वही शक्तियाँ बन जाती हैं जो अपनी प्रकृति में अधिनायक हैं। 

Tuesday, August 28, 2018

What is Ideology?

व्हाट इज आइडिओलॉजी: आंसर जेनरेशन नेक्स्ट के लिए 

साभार: दिल्ली की सेल्फी 


केवल शब्द से पकड़ें, माने लिटरली; विचारधारा को आइडियाज का एक स्ट्रीम होना चाहिए पर मामला इतना आसान नहीं है। अब यह वर्ड, टर्म (टर्मिनोलॉजी) बन गया है और एक स्पेशल मीनिंग में यूज़ होता है। विचारधारा; एक खास विचारों का पुलिंदा है जिसके आधार पर किसी भी घटना (फिनॉमिना) को देखा, परखा, समझा और कहा जाता है।उन खास विचारों की बुनावट लॉजिकल होगी ताकि किसी भी रेशनल माइंड को अपील करे। उन खास आइडियाज से एक नजरिया (पर्स्पेक्टिव) बनाने में मदद मिलती है। समझना जरूरी यह है कि किसी आइडियोलॉजी से जब हम किसी फिनॉमिना को देखने-समझने की कोशिश करते हैं तो वह अंडरस्टैंडिंग और वह कन्क्लूजन फाइनल नहीं होता। उसी घटना को किसी दूसरे आइडियोलॉजी से किसी दुसरी तरह देखा-समझा जा सकता है।

अब जब ऐसा है कि एक आइडियोलॉजी से टोटल ट्रुथ तक पहुँचा नहीं जा सकता तो फिर आइडियोलॉजी की इम्पोर्टेंस ही क्या है ? है, हुज़ूर ! बहुत जरूरी है समझना ! हम अगड़म बगड़म माने स्पोरेडिकली या ज़िगज़ैग में सोचते हैं नॉर्मली। और यही प्रॉब्लम की जड़ है। हम फुटबाल से सोचना शुरू करते हैं, फुटबाल से रोनाल्डो तक और फिर पुर्तगाल पहुँच जाते हैं और फिर कब वास्को डी गामा के बारे में सोचते हुए गोवा के वास्को डी गामा पहुँच जाते हैं। ऐसे सोचते हैं हम, हमेशा ! इस थिंकिंग से डेफिनिट और अक्सेप्टबल कन्क्लूजन आने की पॉसिबिलिटी है बंधू बहुत लिटिल। इसलिए डिसिप्लिंड वे में थिंकिंग करना जरूरी हो जाता है। विचारधारा यानी आइडियोलॉजी उन्हीं खास आइडियाज को मिलकर कंस्ट्रक्ट किये जाते हैं जो डिसिप्लिंड थॉट प्रॉसेस से लॉजिकली अर्रेंज किये जाते हैं और इसलिए ही वे एक रेशनल माइंड को अपील भी करते हैं।

चूँकि हर आदमी अलग अलग जगह होता है और अलग अलग जगह से किसी घटना को देखते हुए ज़िगज़ैग ही सही एक कन्क्लूजन पर पहुँचता तो है ही, अक्सर उसी कन्क्लूजन को फाइनल मानने की टेंडेंसी रहती है, अक्सर इसी को लोग कहते हैं-भैया, हम ग्राउंड पे थे, हमसे जानों रियल्टी ! कोई फिनॉमिना होती एक जगह है पर उसे अलग-अलग लोग अलग-अलग जगह से अलग-अलग तरीके से परसीव करते हैं और फिर उस रियल्टी के रीयल वर्जन भी उतने ही हो जाते हैं, जितने लोग उसके बारे में ग्राउंड रिपोर्ट करते हैं। एक बात और भी है, दो आँखें हैं अपने पास, पर मिलकर भी देखती वही है जहाँ माइंड का अटेंशन होता है। जब माइंड डिसाइड करता है कि किसी सीन में ‘क्या’ देखना है तो अक्सर अपनी पुरानी ट्रेनिंग के हिसाब से वह यह भी डिसाइड करता है कि उस ‘क्या’ को ‘कैसे’ देखना है ! फिर क्या- सब अपनी-अपनी ज़िद पे रहते हैं कि-भइया, हमरी सुनो, हम ग्राउंड पे थे ! सच ये है कि जितना पास होकर देखा जाता है, उतना ही खतरा होता है। इसलिए ही रिपोर्टर को एनालिस्ट की जरुरत होती है। जिस घटना के हम विटनेस होते हैं या जिस घटना के हम खुद ही पार्ट होते हैं, वह घटना हम पर ही जाने कितना इम्पैक्ट कर रही होती है। और यह जो इम्पैक्ट होता है वह माइंड को गाइड करता है कि उस फिनॉमिना को एक खास इम्पैक्ट में ही ज़ियादा परसीव किया जाय। फ्रंट के एक सिपाही को इसीलिये डिसीजन मेकिंग के लिए दूर खड़े जनरल या हेडक़्वार्टर का आर्डर लेना होता है।

रियल्टी के इसलिए ही कई एंगेल होते हैं। सच झुकता नहीं है, परेशान हो सकता है, साहब लेकिन सच का सच यह है कि इसे टोटैलिटी में परसीव करना एक टफ चीज है। इसलिए विचारधारा और सिद्धांतों की शुरुआत हुई। आइडियोलॉजी का जो ऑब्जेक्ट है वह एनिमेट डायनामिक रियलिटी है। ह्यूमन बींग पर कोई एक प्रिंसिपल काम कर ही नहीं सकता, इसलिए ही ह्यूमन बिहैवियर से जुड़े सब्जेक्ट्स में प्रिंसिपल से अधिक पर्स्पेक्टिव इम्पोर्टेन्ट होता है और यहीं चूक होती है उनसे, जिन्होंने पिछले कई सालों से महज साइंस के ऐकजैक्टनेस (exactness) की ट्रेनिंग से अपने माइंड को ट्रेन किया हुआ है। इसमें उनकी कोई फॉल्ट भी नहीं। अपने कंट्री में साइंस, मैनेजमेंट, मेडिकल के स्वैग का पूछो मत। जहाँ, पैसा नहीं; वहां नॉलेज नहीं, मान लिया जाता है, इसे कहते हैं सोशल सायकॉलॉजी ! आर्ट्स में जब इस प्रॉब्लम को महसूस किया गया कि रियलिटी के परसीव करने के प्रोसेस में पर्सनल बायसेस (biases) आ सकते हैं तो विचारधाराओं का चलन तेजी से हुआ।

एक आइडियोलॉजी, अपने तरह की खास विचारों से बने डिसिप्लिंड थॉट प्रोसेस को ऑफर करती है। यहाँ बायसनेस की गुंजायश तो पूरी है, पर आइडियोलॉजी यूज़ करने वाला शुरू से ही अवेयर है। इसी अवेयरनेस की गुंजायश ने आइडियोलॉजी का मान बढ़ाया। अब जब हम किसी फिनॉमिना को मार्क्सिज्म की आइडियोलॉजी से देखते हैं तो अवेयर रहते हैं कि थॉट प्रोसेस का बेस क्या है। इसप्रकार फिनॉमिना को समझ भी लेते हैं और थॉट प्रोसेस पर कंट्रोल भी बना रहता है, ज़िगज़ैग नहीं होने पाता। बस एक गलती हो जाती है अक्सर। इसी गलती की वजह से आइडियोलॉजी बदनाम बहुत हैं। लेकिन इसमें गलती आइडियोलॉजी से नहीं, बंदे से होती है। यही कि, उस पार्टिकुलर आइडियोलॉजी के यूज़ से मिले कन्क्लूजन को ही फाइनल समझना। भाई, दुनिया में बहुत विचारधाराएँ हैं, क्यूंकि दुनिया बहुत बड़ी है और लोग वैरायटी में हैं, तो किसी घटना के अनगिनत ऐंगल संभव हैं तो एक आइडियोलॉजी से कुछ ऐंगल्स पकड़ में आते हैं, ज्यादातर रह ही जाते हैं। ये समझना चाहिए। तभी तो किसी एक घटना को समझने के लिए कई आइडियोलॉजीज का इस्तेमाल होता है, ताकि ज्यादातर ऐंगल्स पकड़ में आएं। एनालिसिस इसलिए ही यों की जाती है कि उसमें ग्राउंड रिपोर्ट वाला भी हो और दूर से देख रहा एनालिस्ट भी हो ! ज़िंदा डायनामिक ह्यूमन बींग जिस फिनॉमिना के पार्ट हों, उससे निकलती घटना के रियलिटी का ट्रुथ पकड़ना कभी आसान नहीं था, पर कोशिश की जाती है लगातार ताकि फ्यूचर आज से बेहतर हो। डिबेट, डिस्कशन, एनालिसिस सारे ही इसलिए ही जरूरी हैं ताकि अधिक से अधिक एंगेल पकड़ में आये। जरूरी नहीं कि हर डिस्कशन, डिबेट का कन्क्लूजन आये ही, क्योंकि यह स्टेबल ऑब्जेक्ट वाला साइंस नहीं है, यहाँ अगर डिस्कशन से अधिकांश पॉसिबल एंगेल ही खोज लिए गए तो धीरे धीरे कन्क्लूजन परसीव होते रहेंगे।

एक आइडियोलॉजी एक चश्में से अधिक कुछ नहीं होती। हमें समझना चाहिए कि लाल रंग के चश्में से सब कुछ लाल दिखेगा और हरे रंग का ग्लास होगा तो सबकुछ ग्रीन दिखेगा। मुश्किल तब होती है जब परवरिश या एजुकेशन से कोई एक ही तरह का चश्मा लगा ही रह जाता है और बंदा आँख और चश्में में फर्क ही नहीं कर पाता। कलर लैब में जैसे फोटो डेवलपिंग में हम समझते हैं कि कोई फ्रेम किस कलर में ज़ियादा निखरेगा उसी कलर का यूज़ करके बेहतरीन फोटो बनाने की कोशिश की जाती है, इसलिए ही अलग-अलग विचारधाराओं का चश्मा पहनकर घटनाएं देखने की कोशिश होती है। बस परेशानी यह है कि कइयों को दूसरा चश्मा कभी मिल ही नहीं पाता, जो मिलता भी है तो पिछला चश्मा उतारना नहीं आता। और मान लीजिये कि नंगी आँख से सब दिखेगा तो जरूर पर माइंड का घालमेल बना रहेगा।

सबसे बेहतर तो यही है कि हमारी एडुकेशन हमें पढाई के दिनों में ही ढेरों चश्मों से मिलवा दे ताकि हम किसी एक चश्मे को आँख न मानने लगें और जब चाहें वैसा चश्मा यूज़ कर रियलिटी के अधिकांश ऐंगल पकड़ सकें। मोटीमोटा जान लीजिये कि किसी भी वर्ड के बाद जो इज्म लगा होता है तो ज्यादातर वह आइडियोलॉजी होता है, ज्यादातर ! जैसे मार्क्सिज्म, लिबरलिज्म, कैपिटलिज्म, फेमिनिज्म, एट्सेटरा. यूरोप में नेशनलिज्म की आइडियोलॉजी ने वो कहर बरपाया कि दो-दो वर्ल्ड वार्स हो गए। हुआ यही कि अपने अपने नेशन का चश्मा उन्होंने उतारा ही नहीं। सो, आइडियोलॉजी समझनी पड़ेगी देर-सबेर, नहीं तो डेंजर रहगी कि कोई क्लेवर कुछ बोलकर कोई चश्मा पहनाकर टोपी न पहना दे !


Monday, August 20, 2018

जीवंत अस्मिताओं को महज प्रतीक बनाने का उन्माद बेहद निष्ठुर

साभार: दिल्ली की सेल्फी 

अगर संजीदा लोग समावेशी बात नहीं करेंगे तो अंततः कितनी घृणा भर जाएगी अपने प्यारे देश में। लोग गलतियाँ करते हैं, अगर यों ही हम प्रतिक्रियावादी हो जाएंगे तो फिर हमारा यह देश कमजोर होगा उधर दूर स्वर्ग से चर्चिल ठठाकर हँसेगा कि मैंने तो पहले ही कहा था कि भारत की वह राष्ट्र संकल्पना जिसमें सभी पहचानों के लोग रह सकते हैं वह कपोल है। विनम्रतापूर्वक कह रहा हूँ कि विश्व इतिहास हमें सिखाता है कि जब जब राष्ट्र भावना आरोपित की जाती है वह विनाशक होती है किन्तु जब तक यह स्वयमेव व स्वतः स्फूर्त होती है, कल्याणकारी होती है। क्या यह ठीक है कि कोई कानून के डर से अथवा समूह/व्यक्ति दबाव में राष्ट्र प्रतीकों का सम्मान करे? क्या यह स्थिति हमारे राष्ट्रप्रेम की असुरक्षा को नहीं जतलाती ? अमेरिकन फ्लैग की चड्ढियां पहने एक अमेरिकी का राष्ट्रवाद नहीं आहत होता पर हेल्मेट पर तिरंगा लगाए सचिन को जवाब देना पड़ता है। और यह भी सोचिए न कि प्रतीक, राष्ट्र होते हैं या राष्ट्र से प्रतीक होते हैं? फिर राष्ट्र बनते हैं किनसे नागरिकों से ही न!

आधुनिक राष्ट्रराज्य की संकल्पना तो यही बताती है न कि व्यक्ति के लिए राज्य है और लोकतंत्र कहता है कि संप्रभुता जनता में निवास करती है!

मेरा इतना ही आग्रह है कि किसी ओर से भी जोर जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए! राष्ट्रगान गाने को उद्यत छात्र समूह को यदि कोई मौलाना राष्ट्रगान गाने से रोक देता है या व्यवधान डालता है तो मामला कोर्ट में जाए जहाँ उसे अपना पक्ष रखने का मौका मिले फिर कानून अपना काम करे! एक नागरिक के तौर पर हमारा कर्तव्य कानून का पालन करना है न कि पालन करवाना, इसके लिए राज्य के दूसरे प्रकल्प हैं। इतिहास गवाह है कि मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों की लंबी फेहरिश्त है और मुझे आज भी कितने ही मुसलमान भाई मिलते हैं जो पूरे शान से राष्ट्रगान गाते हैं, वन्दे मातरम बोलते हैं! जोर जबर्दस्ती किसी ओर से नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। यह अंततः जोड़ने में है, तभी तो राष्ट्रगान गाना कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है। राष्ट्रगान न गाने के जुर्म में गिरफ्तारी नहीं की जा सकती, दंड निश्चित नहीं किया जा सकता। हाँ गाने को तैयार अथवा गाते हुए व्यवधान पहुँचाने वाले के लिए दंड का प्रावधान है। कोई राष्ट्रगान गाना चाहता है और कोई उन्हें गाने नहीं देता उसके लिए सजा का प्रावधान है पर कोई कानून यह नहीं कहता कि राष्ट्रगान गाना अनिवार्य है।यह स्वतः स्फूर्त होना चाहिए, यही अभीष्ट था, है। राष्ट्र जिन घटकों से मिलकर बनता है उसमें नागरिक शामिल हैं, उनका एकीकृत प्रतीक है ध्वज व राष्ट्रगान! जोर जबर्दस्ती राष्ट्र के उत्स को खतरे में डालती है।

फिर कहूंगा अंततः राष्ट्र लोगों को जोड़ने में है! अजीब विडंबना है आजकल बहुत गहराई में देखिए तो जो लोग राष्ट्र को महज एक प्रतीक न मान जीवंत मान रहे उन्हें सहसा देशद्रोही करार दिया जा रहा। इस देश ने ऐसे ही गाँधी को महज प्रतीक बना दिया, नारी को त्याग, पवित्रता का प्रतीक बना दिया, स्त्री को इज्जत का प्रतीक, धर्म को वस्त्र बना दिया गया, कितना गिनाऊँ...ये जिंदा अस्मिताओं को महज प्रतीक बनाने का उन्माद बेहद निष्ठुर है, कम से कम मेरा देश जो सहज सनातन शाश्वत है और जिसमें विभिन्नताओं के संश्लेषण की अद्भुत विराट क्षमता है, जिसकी निर्झर परंपराएँ कालातीत हैं वह प्रतीकों की सुरक्षा का मोहताज नहीं है।

मै राष्ट्र प्रतीकों का आदर करता हूँ और दिल से चाहता हूँ कि देश का प्रत्येक व्यक्ति इनका आदर करे। पर अगर इन प्रतीकों का आदर करवाना पड़े तो बताइए न क्या यह इसे इंगित नहीं करता कि स्वतंत्रता पश्चात जो राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया हमने समवेत चलाई है उसमें और भी सुधार की आवश्यकता है? या कि जबरन आदर करवाएंगे। हमें हराना नहीं है देश विरोधी मानसिकता को, उन्हें जीतना है और पुष्यमित्र, अशोक, गाँधी, मौलाना आजाद, अबुल कलाम, टाटा का य‍ह देश जानता है कि जीता कैसे जाता है!

एक रोष में यदि प्रतीक पालन करवाया जाएगा तो राष्ट्र के नाम पर एक रोष पनपेगा और इस रोष को ध्रुवीकरण के लिए प्रयोग कर राजनीतिक दल लाभ लेंगे! क्या यही अंग्रेजों ने नहीं किया? क्या यही विभाजन के समय नहीं दिखा? क्या यही आजाद भारत के दल जब तब नहीं करते हैं?

Tuesday, August 14, 2018

क्या हम निष्पक्ष मीडिया के लिए तैयार हैं?


साभार: दिल्ली की सेल्फी 

निष्पक्ष न्यूज-व्यूज पढ़ने-देखने के लिए हमें अपनी जेब से पैसे खर्च करने को धीरे-धीरे मन बनाना होगा। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में सबसे बड़ा प्रायोजक सरकारी विज्ञापन के बहाने सरकार ही बन जाती है। प्रायोजित न्यूज संस्कृति में हम मीडिया और सरकार से इस सकारात्मक उम्मीद में होते हैं कि ये दोनों खुद राजनीतिक नैतिकता का अनुपालन करेंगे। यह अजीब स्थिति है। घर में बैठे-बैठे हम ये उम्मीद करते हैं कि मीडिया अपना काम करे और आपको न्यूज पहुँचाए और उसी भोलेपन से हम सोचते हैं कि सरकार चुन ली गई है और अब वह अपना काम करे! मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए है क्यूँकि वह सार्वजानिक पक्ष पर प्रश्न कर सकता है।

प्रश्न करने के पीछे एक तैयारी करनी होती है। इस तैयारी में जीते-जागते, पढ़े-लिखे लोग होते हैं, जिनके दिन का 18-20 घंटा लगता है, उन्हें भी उसी रेट पर बाजार सामान देता है, उन्हें भी अपना परिवार चलाना है, यह तैयारी ही उनका रोजगार है। ग्लोबलाईजेशन और तगड़े बाजारवाद के दौर में एक पत्रिका, एक अखबार और एक चैनल चलाना बेहद ही चुनौती भरा काम है। एकबार पैसा लगाने के बाद अपना संस्थान बचाना ही इतना कठिन हो जाता है कि निष्पक्षता और पारदर्शिता का आदर्श बेहद निष्ठुर लगने लगता है। इन आदर्शों से उबकाई आने लगती है जब विज्ञापनों के लिए उन्हीं लालाओं और सरकार के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है जिनके अनियमितताओं के विरुद्ध न्यूज बनानी और चलानी होती है। यह संभव ही नहीं है तो इसलिए ऐसा होता भी नहीं। होता यही है कि न्यूज संस्थान धीरे-धीरे दलाल और धमकाऊ होते जाते हैं। न्यूज के नाम पर वे बेचते हैं जिनको वो एडिटर रूम में नहीं बेच पाते हैं।

इस क्षेत्र की बाजारू प्रतिस्पर्धा मीडिया मालिकों को एक बीच का रास्ता खोजने पर मजबूर करती है। मीडिया मालिक फिर सरकार, बाजार और समाज को छोटी-बड़ी मछलियों से बने झुंड की तरह देखने लगते हैं। मीडिया मालिक बड़े ही ध्यान से फिर मछली मारने के काम में खुद को लगा लेता है। जो मछलियाँ नई होती हैं उनकी एक छोटी गलती भी अखबार और चैनल पर पहाड़ बनकर दिखती है। यह स्थापित मछलियों के लिए चेतावनी भी होती है। सरकार सबसे बड़ी शार्क होती है, ऐसे में! उसके पास तो नुकीले दातों का भी बढ़िया इंतजाम होता है। फिर मीडिया एक ऐसा धंधा बन जाता है जिसमें ग्राहक को लगभग कुछ चुकाना ही नहीं पड़ता। जैसे ही हम नागरिक मीडिया के ग्राहक बन पाने की योग्यता खोते हैं, मीडिया हमारे उम्मीदों के आदर्श का कागज हवाई जहाज बनाकर उड़ाने लग जाता है। ऐसा करते हुए वे अपनी आत्मा का सौदा कर चुके होते हैं, लेकिन उन्हें भ्रष्ट कह आगे बढ़ जाना एक खतरनाक भूल होगी।

उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करते हैं हम और आप, क्योंकि हम और आप न्यूज मुफ्त में पढ़ना-देखना चाहते हैं। यहाँ हम अपनी जेबें ढीली करने को तैयार हों तो मीडिया इतनी सशक्त होगी कि सरकार के बहुतेरे पक्षों से भ्रष्टाचार पर लगाम लगे और नतीजा ये होगा कि चीजें जो बेवज़ह महंगी हैं वे सस्ती होंगी और क्रय शक्ति भी बढ़ेगी। मीडिया पर खर्च करना राष्ट्रहित में एक देशभक्ति का काम भी होगा और यह नागरिक कर्तव्यों की भी पूर्ति करेगा। प्रायोजित न्यूज सामग्री पढ़कर और देखकर सार्वजानिक मामलों पर निष्पक्ष राय बनायी ही नहीं जा सकती। ऐसा सोचना कोरा भोलापन है कि सरकार जिसे अपना भारी-भरकम विज्ञापन देगी, वह सरकार की कोई भी और कैसी भी आलोचना कर सकेगा! मीडिया प्रतिष्ठान का वह मॉडल जिसमें विज्ञापन दिखाने-छापने के लिए व्यवसायी पैसे खर्च करते थे, बेहद पुराना और सरल मॉडल है। अब जबकि सत्ता और उद्योग का गठजोड़ जगजाहिर है ऐसे में इस मॉडल से निकलने वाले किसी भी न्यूज की विश्वसनीयता पर गहरे संकट हैं। बड़े-छोटे पत्रकार निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि सरकारें उनपर दबाव रखती हैं और यह कम-अधिक हर दौर में होता रहता है। परिचित कई मीडियाकर्मी स्वीकार करते हैं कि निष्पक्ष न्यूज कोई कैसे दे जबकि एक रुपया भी ग्राहक कोई एक लेख पढ़ने अथवा देखने में खर्चना नहीं चाहता। यदि दर्शक और पाठक एक रुपए भी प्रति लेख खर्चने को तैयार हो जाए तो मीडिया मछलियों को ठेंगा दिखाने लगें, फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाये।

मीडिया पर एकतरफा आदर्श निभाने का दबाव इसे और खोखला करेगा। एक अच्छा नेता हमारी तरफ दशकों से देख रहा कि हम उसे वोट देंगे और जिताएंगे। एक पत्रकार दशकों से हमारी तरफ देख रहा कि जब जान जोखिम में डाल वो न्यूज निकालेगा तो हम जनता उसकी सुरक्षा का, उसकी रोजी-रोटी का ख्याल रखेंगे। एक हम हैं कि लगभग मुफ्त में न्यूज चैनल देख रहे और लगभग 25 से 30 रुपये प्रति लागत के अखबार को 4 से 8 रुपए में पढ़ रहे हैं। हम भ्रष्ट हैं दरअसल। कभी लाइन में लगना नहीं चाहते। हमें यह इल्म ही नहीं कि एक एक बेहतर समाज और शासन के लिए नागरिकों को क्या-क्या करना पड़ता है? हमें लगता है कि सबकुछ अपने-आप हो जाएगा। अजी, अगर हम चाहते हैं कि मीडिया अपना काम जिम्मेदारी से करे, कि सरकार अपना काम जिम्मेदारी से करे, कि अधिकारी अपना काम जिम्मेदारी से करें तो सबसे पहले हम जनता को अपना कर्तव्य पहचान उसे जिम्मेदारी से निभाना होगा! और यह बात कोई किताबी आदर्श नहीं है, यह एकदम यथार्थ है, दूसरी कोई जुगत ही नहीं है, सूरत ही नहीं है।

मीडिया के प्रतिबद्ध लोगों को चाहिए कि सबसे पहले संस्थान का ऐसा टिकाऊ मॉडल विकसित करें जिसमें निर्भरता केवल और केवल जनता पर हो। यह कठिन लगता है पर जनता पर विश्वास रखिए, ईमानदारी से इसे शुरू तो करिए। मीडिया के कुछ लोगों ने इसे शुरू भी किया है। कुछ पोर्टल पर आपको यह संदेश दिखता भी होगा जहाँ वे निष्पक्ष पत्रकारिता के नाम पर आपसे कुछ अर्थदान की विनती कर रहे हैं! एक सशक्त नागरिक-समाज के लिहाज से यह शर्मनाक है कि निष्पक्ष पत्रकारिता की कोशिश करने वाला विनती कर रहा है। दोस्तों! आइए आगे बढ़कर ऐसे पत्रकारों, ऐसे प्लेटफॉर्म्स को सपोर्ट करें जो अपनी निर्भरता केवल जनता पर रखना चाहते हैं। आइए न्यूज के लिए अपनी जेबें ढीली करें! क्या आप तैयार हैं? क्या हम तैयार हैं?

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