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Sunday, February 11, 2018

मालदीव संकट और भारत



महज सवा चार लाख की आबादी वाले छोटे से देश मालदीव ने अपने राजनीतिक संकट से पूरी दुनिया की नज़र भारत पर केंद्रित कर दी है। मालदीव के सुप्रीम कोर्ट ने मालदीव के पहले लोकतांत्रिक रीति से निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद सहित हाई प्रोफ़ाइल नौ राजनीतिक बंदियों को रिहा करने और 12 सांसदों की सदस्यता बहाल करने का निर्देश दिया। संसद सदस्यता के बहाल होने का अर्थ यह है कि मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की सरकार अल्पमत में आ जाएगी और उनके विरुद्ध संसद महाभियोग पारित कर सकेगी। यामीन ने खतरा भांपते हुए और संभवतः अपना आखिरी दांव चलते हुए देश में 15 दिवसीय आपातकाल की घोषणा कर संसदीय कामकाज सहित सारे कामकाज ठप कर दिए हैं, आशंका है वे इसे आगे भी बढ़ा सकते हैं । उनके निर्देश पर सेना ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व यामीन के भाई पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम को गिरफ्तार कर लिया है तथा संसद को घेर लिया है। निर्वासित राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने भारत से प्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर लोकतंत्र को बचाने की गुहार लगाई है और अमेरिका से भी मदद की दरख्वास्त की है। भारत ने कड़े शब्दों में मालदीव से लोकतंत्र बहाली की अपील तो जरूर की है पर किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप पर एक चुप्पी बनाई हुई है। तीस साल पहले 1988 में भी जब कुछ स्थानीय व्यापारियों की शह पर तमिल आतंकवादियों की सहायता से गयूम की सरकार को अपदस्थ करने की साजिश रची गयी थी तो गयूम की गुहार पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने नौ घंटे के भीतर ही भारतीय सैन्य टुकड़ी भेजकर गयूम की सत्ता बहाल की थी। एकबार फिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से लोकतंत्र बचाने की गुहार लगाई गयी है। भारत के पास चुनने के जो विकल्प हैं, यकीनन कोई उनमें से आसान नहीं हैं।

1965 में ब्रिटिश औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने के बाद मालदीव में  सल्तनत राजशाही 1968 के जनमत संग्रह तक चलती रही जब इब्राहिम नासिर के नेतृत्व में गणतंत्र की स्थापना हुई। 1978 से मालदीव में मौमून अब्दुल गयूम का काल शुरू हुआ जो लोकतान्त्रिक तो नहीं रहा किन्तु मालदीव को एक राजनीतिक स्थिरता मिली, जिसकी लम्बे समय से दरकार थी। गयूम हिंदमहासागर में विश्व-शक्तियों का हस्तक्षेप नहीं चाहते रहे। मालदीव की इस विदेश नीति के साथ उसकी राजनीतिक स्थिरता भारत के हित में थी, इसलिए 1988 के गयूम शासन के तख्तापलट को भारत ने सैन्य हस्तक्षेप से सफलतापूर्वक रोक लिया था। 2003 में पेशे से पत्रकार मोहम्मद नशीद ने मालदीवियन डेमोक्रैटिक पार्टी का गठन किया और गयूम प्रशासन पर राजनीतिक सुधारों के लिए दबाव बनाया। नागरिक समाज के लोकतान्त्रिक आंदोलनों से आखिरकार 2008 में मालदीव को नया लोकतान्त्रिक संविधान मिला जो बहुदलीय व्यवस्था प्रणाली पर आधारित था। अक्टूबर 2008 में चुनाव हुए और गयूम को हराकर विपक्षी नेता मोहम्मद नशीद नवम्बर, 2008 में देश के पहले लोकतांत्रिक राष्ट्रपति चुने गए। तीन साल बाद ही नशीद सरकार को राजनीतिक संकट से जूझना पड़ा और आखिरकार 2012 में नशीद को त्यागपत्र देना पड़ा। 2013 के नवम्बर में गयूम के प्रयासों से उनके भाई अब्दुल्ला यामीन ने राष्ट्रपति की कुर्सी अपने नाम की और तबसे यामीन और नशीद में राजनीतिक संघर्ष जारी है। 

1988 से 2013 और 2018 तक मालदीव के राजनीतिक परिदृश्य में कई तब्दीलियां हुई हैं। मोहम्मद नशीद ने राष्ट्रपति रहते देश की पर्यटन नीति में जो बदलाव किये थे उनसे अब्दुल गयूम और अब्दुल्ला यामीन के आर्थिक हितों को ठेस लगी थी। फिर नशीद ने देश के कुछ द्वीपों को सामरिक हितों के लिए ब्रिटेन और अमेरिका को प्रयोग करने की इजाजत दे दी थी जो गयूम की विश्व-शक्तियों को हिन्द महासागर क्षेत्र से बाहर रखने की नीति से भी अलग थी। इस बीच सबसे रुचिकर राजनीतिक विकास यह हुआ कि गयूम और यामीन में आपस में ही ठन गयी है । यामीन ने गयूम के बेटे पर गंभीर आरोप लगाए हैं और अब गयूम विपक्षी पाले में दिखाई दे रहे हैं। गयूम की राजनीति में इस्लामिक राष्ट्रवाद के लिए जगह रही है, उन्होंने इस्लाम को मालदीव का राज्यधर्म भी घोषित किया। मालदीव की नजदीकियाँ पाकिस्तान और अरब राज्यों से भी रही हैं। यह स्थिति मालदीव को देर-सबेर चीन के करीब ले ही जाती, जबकि शी जिनपिंग का चीन अपने आक्रामक ओबोर नीति से तेजी से हिन्द महासागर क्षेत्र में अपनी पैठ बढ़ा रहा है। 

हिन्द महासागर सामरिक दृष्टि से इस समय सबसे महत्वपूर्ण हो चला है। अदन की खाड़ी से मलक्का जलडमरूमध्य के बीच की समस्त व्यापारिक गतिविधियाँ हिन्द महासागर से होती हैं। चीन की क्षेत्र में बढ़ती सक्रियता और रूस व पाकिस्तान की चीन के साथ जुगलबंदी ने ब्रिटेन-अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत को विवश किया है कि वे हिन्द महासागर को अधिक तवज्जो दें। जुलाई 2017 में संपन्न मालाबार नौसेना अभ्यास और बहुप्रसिद्ध चतुष्क (क्वाड) इसी शृंखला का एक सामरिक विकास है। डियागो गार्सिआ, एक सामरिक लघुद्वीप जो ब्रिटेन-अमेरिका-भारत के संयुक्त निगरानी में संचालित है, क्षेत्र पर निर्णायक पकड़ बनाने में मदद करता है और चीन की स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स नीति को संतुलित करता है। यहाँ, मारीशस का चागोस प्रायद्वीप के लिए चीन की तरफ सौदेबाजी के लिए उद्यत होना भी ध्यान में रखा जाना चाहिए जो ब्रिटेन-अमेरिका के सामरिक हितों के विरूद्ध विकास है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के बाद चीन ने मालदीव के साथ मुक्त व्यापार समझौता संपन्न कर लिया है और श्रीलंका, मारीशस के साथ बेहद तेजी के साथ इस दिशा में वार्त्ता जारी है। इससे क्षेत्र में चीन की बढ़ती पकड़ का अंदाजा लगता है।  

भारत के कूटनीतिक कुटुंब के पास मालदीव संकट पर चुप रह जाने का विकल्प ही नहीं है। चुप्पी का अर्थ यामीन सरकार के अलोकतांत्रिक कदम का समर्थन कर देना होगा। मालदीव की तरफ से हस्तक्षेप का जो आग्रह है वह 1988 की तरह आधिकारिक नहीं है, अपितु यह निर्वासित राष्ट्रपति नशीद की तरफ से है। 1988 में हिन्द महासागर में चीन का दखल नहीं था जो आज के मालदीव सरकार का निर्णायक मित्र है। यामीन ने इस संकट पर अपने विशेष दूत अपने मित्र देशों यथा- चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब को भेज दिए हैं। बाद में भारत से भी संवाद की कोशिश की गयी, जिसे भारत ने यामीन सरकार की प्राथमिकताओं को समझने के बाद ठुकरा दिया। यामीन सरकार ने भी यूरोपीय यूनियन और श्रीलंका के विशेष दूतों से माले में मिलने से इंकार कर दिया है। ज़ाहिर है यामीन सरकार चाहती है कि चीन ही अपनी प्रभावी भूमिका से उनकी सरकार बचा ले । किन्तु चीन ने मालदीव सरकार को इस संकट से निपटने में सक्षम बताते हुए यह संकेत दिए हैं कि उसकी मंसा है कि कोई भी वाह्यशक्ति इस आंतरिक संकट में हस्तक्षेप न करे। चीनी अधिकारियों ने अपने भारतीय समकक्षों को भी आपसी द्विपक्षीय संबंधों में कोई दूसरा विवादित बिंदु न जोड़ने का आग्रह किया है। चीन ने अपने मालदीव पर्यटकों को कुछ सुरक्षा निर्देश भी जारी किये हैं। चीन ने अभी तक किसी मित्र देश के लिए खुलकर सामरिक हस्तक्षेप नहीं किया है इसलिए मालदीव में भी इसकी सम्भावना कम ही है। 

इस संकट पर पश्चिमी जगत एकमत हैं कि लोकतंत्र बहाली के तर्क से भारत को किसी भी प्रकार के आवश्यक हस्तक्षेप के लिए तैयार रहना चाहिए। ट्रम्प के अमेरिका की यह रट रही है कि भारत को अपनी वैश्विक भूमिका निभानी चाहिए। अमेरिका, भारत, पाकिस्तान, चीन, सऊदी अरब और यूरोपीय यूनियन आपस में मालदीव संकट पर अलग-अलग स्तरों पर वार्त्तारत हैं और बारीकी से मामले को देख रहे हैं। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भारत अपनी भूमिका से बच नहीं सकता, विश्व-शक्ति भूमिका के अपने खतरे तो हैं ही किन्तु अक्रियता अन्ततः मालदीव को भारत से दूर ले जाएगी और भारतीय कूटनीतिक साख को भी मद्धम करेगी। भारत के पास प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप का विकल्प तो है, किन्तु निश्चिततः यह अंतिम विकल्प है क्योंकि वैश्वीकरण के इस दौर में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप अविश्वासों और विवादों का नया सिलसिला शुरू करेगा और फिर हिन्द क्षेत्र आँगन में वाह्य विश्व-शक्तियों का हस्तक्षेप और बढ़ जायेगा। भारत के पास कूटनीतिक विकल्प उपलब्ध हैं। संयुक्त राष्ट्र विशेष दल की निगरानी में मालदीव में लोकतंत्र बहाली के प्रयास किये जा सकते हैं। भारत की यह कोशिश रहनी चाहिए कि अपने कूटनीतिक प्रभाव का प्रयोग करके अमेरिका, सऊदी अरब, यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय समाज के संयुक्त दबाव से चीन के प्रभाव को कम किया जाए और मालदीव में लोकतंत्र बहाली की जाय।  

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